जम्मू कश्मीर25जून25 शहीद भगत सिंह धर्म और अंधविश्वास की जकड़न से जनता को मुक्त करने पर बहुत जोर देते थे।
शहीद होने के कुछ हफ्ते पहले उन्होंने लेख लिखा था- “मैं नास्तिक क्यों हूं।” इसमें उन्होंने धर्म और धर्म दर्शन की खूब आलोचना की और नास्तिकता का रास्ता उन्होंने खुद तलाशा। इसमें उन्होंने बताया कि कैसे सिख धर्म के प्रति उनकी आस्था खत्म हो गई। भाई रणधीर सिंह ने एक बार भगत सिंह से मिलने से इंकार कर दिया, इसलिए कि भगत सिंह ने केश कटा दिए थे। इसके उत्तर में पत्र लिखकर भगत सिंह ने कहा था- “मैं सिख धर्म का अंग-अंग कटवाने की परंपरा का कायल हूं। अभी तो मैंने एक ही अंग (केश) कटवाया है। यह पेट के लिए नहीं देश के लिए जल्दी ही गरदन भी कटवाऊंगा, लेकिन एक सिख की तंगनजरी (संकुचित दृष्टिकोण) व तंगदिली (संकुचित दिल) का गिला जरूर रहेगा।”
अंत में भगवान के अस्तित्व में उनकी आस्था नहीं रही। सृष्टि के विकास और गति के पीछे किसी मानवेतर ईश्वरीय सत्ता के अस्तित्व की परिकल्पना को वैज्ञानिक ढंग से निराधार सिद्ध करते हुए कहा- “हमारी पुरानी विरासत के दो पक्ष होते हैं-एक सांस्कृतिक और दूसरा मिथकीय। मैं सांस्कृतिक गुणों, जैसे-निष्काम देश सेवा, बलिदान, विश्वासों पर अटल रहना, को पूरी सच्चाई से अपनाकर आगे बढ़ने की कोशिश में हूं, लेकिन मिथकीय विचारों को जो पुराने समय की समझ के अनुरूप हैं, वैसे को वैसा मानने के लिए बिलकुल भी तैयार नहीं हूं, क्योंकि विज्ञान ने ज्ञान में खूब वृद्धि की है और वैज्ञानिक विचार अपनाकर ही भविष्य की समस्याएं हल हो सकती हैं।”
प्रगति के समर्थक प्रत्येक व्यक्ति के लिए यह अनिवार्य है कि पुराने विश्वास से संबंधित हर बात पर विवेकपूर्ण ढंग से पर्याप्त सोच-विचार करने के बाद किसी सिद्धांत या दर्शन में विश्वास करें, क्योंकि विवेक का ध्रुव तारा सही रास्ता बनाता हुआ उसके जीवन में चमकता है, मगर कोरा विश्वास और अंधविश्वास खतरनाक होता है वह दिमाग को कुंद करता है और आदमी को प्रतिक्रियावादी बना देता। भगतसिंह ने कहा- “मुझे पक्का विश्वास है कि प्रकृति का निर्देशन और संचालन करने वाली किसी चेतन या परमसत्ता का कोई अस्तित्व नहीं है। हम प्रकृति में विश्वास करते हैं और प्रकृति को मानव सेवा में नियोजित करने के लिए उसे मनुष्य की वशवर्ती बनाना समुचे प्रगतिशील आंदोलन का लक्ष्य है। उसे चलाने वाली कोई चेतना शक्ति उसके पीछे नहीं है, यही हमारा दर्शन है।”
जब कोई आदमी पाप या अपराध करना चाहता है, तो उसका सर्वशक्तिमान ईश्वर उसे रोकता क्यों नहीं? उसके लिए तो यह बहुत ही आसान काम होगा।
उसने जंगबाजों को मारकर या उनके भीतर युद्धोन्माद को समाप्त कर मनुष्यता को विश्वयुद्ध की महाविपत्ति से क्यों नहीं बचाया? उसने अंग्रेजों के मन में कोई ऐसी भावना पैदा क्यों नहीं की कि वे हिंदुस्तान को आजाद कर दें? वह तमाम पूंजीपतियों के दिलों में परोपकार का ऐसा जज्बा क्यों नहीं भर देता कि वे उत्पादन के साधनों पर अपने निजी स्वामित्व के अधिकार को त्याग दें और इस प्रकार सारे मेहनतकश वर्ग को ही नहीं, बल्कि सम्पूर्ण मानव समाज को पूंजीवाद के बंधन से मुक्त कर दे।
एक मित्र ने मुझसे प्रार्थना करने के लिए कहा। जब उन्हें पता चला कि मैं नास्तिक हूं, तो उन्होने कहा- “अपने अंतिम दिनों में तुम ईश्वर को मानने लगोगे।” मैंने कहा- “नहीं जनाब, ऐसा नहीं होगा। मैं इसे अपने लिए अपमान और पस्तहिम्मती (कमहिम्मती) का काम समजूंगा। स्वार्थपूर्ण इरादों से प्रार्थना हरगिज नहीं करूंगा। सब लोग अच्छी तरह से जानते हैं कि हमारे मुकदमे का फैसला क्या होगा। मैं एक उद्देश्य के लिए अपने प्राणों का बलिदान करने जा रहा हूं? ईश्वर में विश्वास करने वाला हिंदू राजा बनकर पुनर्जन्म लेने की आशा कर सकता है। मुसलमान या ईसाई जन्नत में मिलने वाले मजे लूटने और अपनी मुसीबतों तथा कुर्बानियों के बदले इनाम हासिल करने के सपने देख सकता है। मगर मैं किस चीज की उम्मीद करूं, मैं जानता हूं कि जब मेरे गले में फांसी का फंदा डालकर मेरे पैरों के नीचे से तख्ते खींचे जाएंगे, तब सबकुछ समाप्त हो जाएगा। वही मेरा अंतिम क्षण होगा।
मेरा अथवा आध्यात्मिक शब्दावली में कहूं, तो मेरे अंतर्मन का सम्पूर्ण अंत उसी क्षण हो जाएगा, बाद के लिए कुछ नहीं बचेगा। अगर मुझमें इस दृष्टि से देखने का साहस है, तो एक छोटा-सा संघर्षमय जीवन ही जिसका अंत भी कोई शानदार नहीं है। अपने आप में मेरा यही पुरस्कार होगा। बस, और कुछ नहीं किसी स्वार्थपूर्ण इरादे के बिना इहलोक या परलोक में कोई पुरस्कार पाने के इच्छा के बिना बिलकुल अनासक्तभाव से मैंने अपना जीवन आजादी के उद्देश्य के लिए अर्पित किया है, क्योंकि मैं ऐसा किए बिना रह नहीं सका।”
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