December 23, 2024

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गोरखपुर227अक्टूबर*पूर्वांचल की राजनीति में कैसे छाते गए दबंग?*

गोरखपुर227अक्टूबर*पूर्वांचल की राजनीति में कैसे छाते गए दबंग?*

गोरखपुर227अक्टूबर*पूर्वांचल की राजनीति में कैसे छाते गए दबंग?*

पूर्वी उत्तर प्रदेश के गोरखपुर ज़िले की एक विधानसभा सीट है चिल्लूपार. 1985 में ये सीट

*पूर्वांचल की राजनीति में कैसे छाते गए दबंग?*

पूर्वी उत्तर प्रदेश के गोरखपुर ज़िले की एक विधानसभा सीट है चिल्लूपार. 1985 में ये सीट एकाएक उस वक़्त चर्चा में आई जब हरिशंकर तिवारी नाम के निर्दलीय उम्मीदवार ने जेल की दीवारों के भीतर रहते हुए चुनाव जीता और भारतीय राजनीति में ‘अपराध’ के सीधे प्रवेश का दरवाज़ा खोल दिया.

इसके बाद से ही भारतीय राजनीति में अपराध और राजनीति के गठजोड़ की नहीं, बल्कि अपराध के राजनीतिकरण की बहस शुरू हुई.

हरिशंकर तिवारी के राजनीति में प्रवेश से न सिर्फ़ उनके चिरविरोधी कहे जाने वाले वीरेंद्र प्रताप शाही ने भी लक्ष्मीपुर विधानसभा सीट से जीत हासिल की बल्कि ख़ुद तिवारी भी राजनीति की बुलंदियां छूते चले गए.

हरिशंकर तिवारी ने जब चिल्लूपार विधानसभा सीट से निर्दलीय उम्मीदवार के तौर पर जीत हासिल की, उस समय उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री वीर बहादुर सिंह थे और उनका भी इलाक़ा गोरखपुर ही था.

तिवारी बताते हैं कि राजनीति में वो पहले से ही थे, लेकिन चुनाव लड़ने के पीछे मुख्य कारण सरकारी उत्पीड़न था.

बकौल हरिशंकर तिवारी, “कांग्रेस पार्टी में मैं पहले से ही था. पीसीसी का सदस्य था, एआईसीसी का सदस्य था. इंदिरा जी के साथ काम कर चुका था, लेकिन चुनाव कभी नहीं लड़ा था. तत्कालीन राज्य सरकार ने मेरा बहुत उत्पीड़न किया, झूठे मामलों में जेल भेज दिया और उसके बाद ही जनता के प्रेम और दबाव के चलते मुझे चुनाव लड़ना पड़ा.”

*वर्चस्व की लड़ाई*

तिवारी कहते हैं कि ये क्रिया की प्रतिक्रिया थी जो वो चुनावी राजनीति में आए. तिवारी नाम तो नहीं लेते हैं, लेकिन जिस समय की वो घटना बता रहे हैं उस समय उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री वीर बहादुर सिंह थे और उनका इशारा ज़ाहिर है, उन्हीं की ओर था.

गोरखपुर के इस इलाक़े में पहले दो गुटों में वर्चस्व की लड़ाई होती थी, लेकिन दोनों गुटों के प्रमुखों के राजनीति में आने के बाद ये लड़ाई राजनीति के कैनवास पर भी लड़ी जाने लगी.

हालांकि साल 1997 में वीरेंद्र शाही की लखनऊ में हुई दिनदहाड़े हत्या ने इस वर्चस्व की लड़ाई पर तो विराम लगाया, लेकिन उसके बाद ये लड़ाई पूर्वांचल के दूसरे गुटों तक फैलते हुए पूर्वांचल से आगे भी चली गई.

*अपराध और राजनीति*

पूर्वांचल से ही वास्ता रखने वाले लखनऊ के वरिष्ठ पत्रकार योगेश मिश्र कहते हैं, “दरअसल, वर्चस्व की ये लड़ाई पहले से ही चल रही थी, लेकिन इसे राजनीति का साथ मिलने का सिलसिला यहीं से शुरू होता है. उसके बाद तो पूर्वांचल में माफ़िया और राजनीति का कथित गठजोड़ मुख़्तार अंसारी, ब्रजेश सिंह, रमाकांत यादव, उमाकांत यादव, धनंजय सिंह के साथ-साथ अतीक अहमद, अभय सिंह, विजय मिश्र तक पहुंच गया.”

दरअसल, अपराध और राजनीति के इस गठजोड़ के पीछे इन नेताओं को प्रमुख पार्टियों की ओर से मिलने वाला महत्व भी था.

बात यदि हरिशंकर तिवारी की करें तो जेल की सलाखों के पीछे रहकर विधायक बनने के बाद वो न सिर्फ़ लगातार 22 वर्षों तक विधायक रहे, बल्कि साल 1997 से लेकर 2007 तक लगातार मंत्री भी रहे. इस दौरान प्रदेश में सरकारें बदलती रहीं, लेकिन हर पार्टी की सरकार में तिवारी मंत्री बने रहे.

*अपराध से लेना-देना नहीं*

शुरुआत कल्याण सिंह के मंत्रिमंडल से हुई और राजनाथ सिंह, मायावती से लेकर मुलायम मंत्रिमंडल में भी उनका नाम पक्का होता रहा. ये बात अलग है कि राजनीति की शुरुआत उन्होंने कांग्रेस पार्टी से की.

उसके बाद तो माफ़िया तत्वों को राजनीतिक दलों में जगह देने की होड़ सी मच गई. चाहे बीजेपी हो या फिर सपा और बसपा, किसी ने भी ऐसे तत्वों को पार्टी में जगह और टिकट देने से कोई गुरेज़ नहीं किया.

मुख़्तार अंसारी और उनके परिवार के लोग बीएसपी में भी रहे और समाजवादी पार्टी में भी. उसी तरह आज़मगढ़ के यादव बंधु यानी रमाकांत यादव और उमाकांत यादव भी कभी बीजेपी, कभी सपा तो कभी बीएसपी से विधायक-सांसद बनते रहे.

उमाकांत यादव ने तो 2004 के लोकसभा चुनाव में मछलीशहर सीट से बीजेपी के तत्कालीन प्रदेश अध्यक्ष और इस समय पश्चिम बंगाल के राज्यपाल केशरीनाथ त्रिपाठी को हराया था,
रमाकांत यादव अपने भाई के साथ सपा, बसपा, में भी रहे और बीजेपी में भी

मऊ और ग़ाज़ीपुर में ख़ासा वर्चस्व रखने वाले अंसारी बंधुओं को समाजवादी पार्टी में शामिल करने को लेकर 2017 के विधानसभा चुनाव में यादव परिवार में ही घमासान मच गया. इस परिवार में मची कलह के तमाम दूसरे कारणों के अलावा एक प्रमुख कारण ये भी था.

पूर्व सांसद और पूर्व विधायक अफ़ज़ाल अंसारी बीबीसी से बातचीत में सीधे तौर पर आरोप लगाते हैं, “अखिलेश यादव और समाजवादी पार्टी को जब राज्यसभा और विधान परिषद चुनाव में हमारी मदद लेनी थी तो हम अच्छे हो गए और जब काम हो गया तो हम माफ़िया हो गए.”

साल 2012 के विधानसभा चुनाव में ब्रजेश सिंह जेल से ही भारतीय समाज पार्टी से चंदौली ज़िले की सैयदराजा सीट चुनाव लड़े, लेकिन हार गए. हालांकि उसके बाद उन्होंने उच्च सदन यानी विधान परिषद का चुनाव लड़ा और रिकॉर्ड वोटों से जीत हासिल की.

*’काम हो गया तो हम माफ़िया हो गए’*

भदोही में तीन बार से विधायक रहे विजय मिश्र का भी मुख़्तार अंसारी की तर्ज पर समाजवादी पार्टी ने टिकट काट दिया. विजय मिश्र अब अपने दम पर चुनाव लड़ रहे हैं. वो कहते हैं, “समाजवादी पार्टी के दोनों खेमों ने मुझे टिकट दिया था, फिर अचानक अखिलेश खेमे ने काट दिया. उसके बाद मुझसे बीएसपी और बीजेपी दोनों ने संपर्क किया लेकिन मैं कहीं नहीं गया. मेरी वजह से राजनीतिक पार्टियों की चार-छह सीटें सुनिश्चित होती हैं, अपने लिए मुझे इनकी नहीं जनता के स्नेह की ज़रूरत होती है और वो मुझे मिल रहा है.”

पत्रकार राघवेंद्र त्रिपाठी बताते हैं कि वर्चस्व की लड़ाई के पीछे रेलवे और दूसरे सरकारी ठेकों के अलावा नेपाल की सीमा से होने वाली हथियारों और दूसरी अन्य चीजों की तस्करी भी रही है. राजनीतिक संरक्षण के चलते ऐसे काम इन लोगों के लिए आसान हो गए और राजनीतिक दलों को इनकी वजह से सीटें जीतने में सहूलियत हो गई.

बताया जाता है कि अस्सी के दशक में हरिशंकर तिवारी का इतना दबदबा था कि गोरखपुर मंडल के जो भी ठेके इत्यादि होते थे वो बिना हरिशंकर तिवारी की इच्छा के किसी को नहीं मिलते थे, लेकिन हरिशंकर तिवारी कहते हैं कि अपराध से उनका कोई लेना-देना नहीं था.

उनके ख़िलाफ़ दो दर्जन से ज़्यादा मुक़दमे दर्ज थे, लेकिन सज़ा दिलाने लायक़ मज़बूती किसी मुक़दमे में नहीं दिखी, लिहाज़ा उनके ख़िलाफ़ लगे सारे मुक़दमे अब ख़ारिज हो चुके हैं.

आर्थिक मज़बूती के लिए जहां माफ़िया छवि के तमाम नेताओं ने राजनीति का रुख़ किया और उसके चलते तमाम ठेके इत्यादि हथियाए.

मऊ ज़िले के वरिष्ठ पत्रकार वीरेंद्र चौहान कहते हैं कि इन नेताओं के चुनाव जीतने के पीछे एक बड़ा कारण यह भी है कि इनमें से कई ने ख़ुद को ग़रीबों के मसीहा के रूप में भी पेश किया.

*माफ़िया या मसीहा*

वो बताते हैं, “मुख़्तार अंसारी या फिर हरिशंकर तिवारी जैसे लोग बार-बार विधायक सिर्फ़ इसलिए ही नहीं हो रहे हैं कि इनकी छवि बाहुबली की है. दरअसल ग़रीबों की व्यक्तिगत मदद और उनके काम के लिए अधिकारियों पर दबाव बनाना भी इनकी लोकप्रियता की एक बड़ी वजह है.”

हालांकि पूर्वांचल की राजनीति में ‘माफ़िया’ तत्व की शुरुआत करने वाले हरिशंकर तिवारी को राजनीति में पहली पटखनी दी इलाक़े के ही एक गुमनाम व्यक्ति राजेश त्रिपाठी ने. 2007 के विधान सभा चुनाव में बीएसपी के उम्मीदवार के तौर पर उन्होंने हरिशंकर तिवारी को हरा दिया.

2012 में राजेश त्रिपाठी फिर जीते और हरिशंकर तिवारी तीसरे नंबर पर आ गए. उसके बाद उन्होंने ख़ुद कोई चुनाव नहीं लड़ा. 2017 में हरिशंकर तिवारी ने पुत्र विनय शंकर तिवारी को बसपा से चुनाव लड़वा तो राजेश त्रिपाठी ने भाजपा का दामन थाम लिया लेकिन इस बार उन्हें हार का सामना करना पड़ा विनय शंकर तिवारी बसपा से चुनाव जीते गये.
हरिशंकर अपने दोनों बेटों समेत एक भांजे को भी राजनीति में स्थापित कर चुके हैं.

‘माफ़िया’ छवि वाले कुछ और नेताओं को भी चुनाव में पराजय का मुंह देखना पड़ा है, लेकिन तिवारी की तरह ऐसे दूसरे नेताओं ने भी अब अपनी अगली पीढ़ी के लिए राजनीतिक ज़मीन तैयार करनी शुरू कर दी है.

जानकारों के मुताबिक 2022 का चुनाव जहां तमाम दलों के राजनीतिक भविष्य के लिए अहम साबित होने जा रहा है, वहीं इन नेताओं के पारिवारिक भविष्य के लिए भी इसकी ख़ासी अहमियत होगी.

एकाएक उस वक़्त चर्चा में आई जब हरिशंकर तिवारी नाम के निर्दलीय उम्मीदवार ने जेल की दीवारों के भीतर रहते हुए चुनाव जीता और भारतीय राजनीति में ‘अपराध’ के सीधे प्रवेश का दरवाज़ा खोल दिया.

इसके बाद से ही भारतीय राजनीति में अपराध और राजनीति के गठजोड़ की नहीं, बल्कि अपराध के राजनीतिकरण की बहस शुरू हुई.

हरिशंकर तिवारी के राजनीति में प्रवेश से न सिर्फ़ उनके चिरविरोधी कहे जाने वाले वीरेंद्र प्रताप शाही ने भी लक्ष्मीपुर विधानसभा सीट से जीत हासिल की बल्कि ख़ुद तिवारी भी राजनीति की बुलंदियां छूते चले गए.

हरिशंकर तिवारी ने जब चिल्लूपार विधानसभा सीट से निर्दलीय उम्मीदवार के तौर पर जीत हासिल की, उस समय उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री वीर बहादुर सिंह थे और उनका भी इलाक़ा गोरखपुर ही था.

तिवारी बताते हैं कि राजनीति में वो पहले से ही थे, लेकिन चुनाव लड़ने के पीछे मुख्य कारण सरकारी उत्पीड़न था.

बकौल हरिशंकर तिवारी, “कांग्रेस पार्टी में मैं पहले से ही था. पीसीसी का सदस्य था, एआईसीसी का सदस्य था. इंदिरा जी के साथ काम कर चुका था, लेकिन चुनाव कभी नहीं लड़ा था. तत्कालीन राज्य सरकार ने मेरा बहुत उत्पीड़न किया, झूठे मामलों में जेल भेज दिया और उसके बाद ही जनता के प्रेम और दबाव के चलते मुझे चुनाव लड़ना पड़ा.”

*वर्चस्व की लड़ाई*

तिवारी कहते हैं कि ये क्रिया की प्रतिक्रिया थी जो वो चुनावी राजनीति में आए. तिवारी नाम तो नहीं लेते हैं, लेकिन जिस समय की वो घटना बता रहे हैं उस समय उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री वीर बहादुर सिंह थे और उनका इशारा ज़ाहिर है, उन्हीं की ओर था.

गोरखपुर के इस इलाक़े में पहले दो गुटों में वर्चस्व की लड़ाई होती थी, लेकिन दोनों गुटों के प्रमुखों के राजनीति में आने के बाद ये लड़ाई राजनीति के कैनवास पर भी लड़ी जाने लगी.

हालांकि साल 1997 में वीरेंद्र शाही की लखनऊ में हुई दिनदहाड़े हत्या ने इस वर्चस्व की लड़ाई पर तो विराम लगाया, लेकिन उसके बाद ये लड़ाई पूर्वांचल के दूसरे गुटों तक फैलते हुए पूर्वांचल से आगे भी चली गई.

*अपराध और राजनीति*

पूर्वांचल से ही वास्ता रखने वाले लखनऊ के वरिष्ठ पत्रकार योगेश मिश्र कहते हैं, “दरअसल, वर्चस्व की ये लड़ाई पहले से ही चल रही थी, लेकिन इसे राजनीति का साथ मिलने का सिलसिला यहीं से शुरू होता है. उसके बाद तो पूर्वांचल में माफ़िया और राजनीति का कथित गठजोड़ मुख़्तार अंसारी, ब्रजेश सिंह, रमाकांत यादव, उमाकांत यादव, धनंजय सिंह के साथ-साथ अतीक अहमद, अभय सिंह, विजय मिश्र तक पहुंच गया.”

दरअसल, अपराध और राजनीति के इस गठजोड़ के पीछे इन नेताओं को प्रमुख पार्टियों की ओर से मिलने वाला महत्व भी था.

बात यदि हरिशंकर तिवारी की करें तो जेल की सलाखों के पीछे रहकर विधायक बनने के बाद वो न सिर्फ़ लगातार 22 वर्षों तक विधायक रहे, बल्कि साल 1997 से लेकर 2007 तक लगातार मंत्री भी रहे. इस दौरान प्रदेश में सरकारें बदलती रहीं, लेकिन हर पार्टी की सरकार में तिवारी मंत्री बने रहे.

*अपराध से लेना-देना नहीं*

शुरुआत कल्याण सिंह के मंत्रिमंडल से हुई और राजनाथ सिंह, मायावती से लेकर मुलायम मंत्रिमंडल में भी उनका नाम पक्का होता रहा. ये बात अलग है कि राजनीति की शुरुआत उन्होंने कांग्रेस पार्टी से की.

उसके बाद तो माफ़िया तत्वों को राजनीतिक दलों में जगह देने की होड़ सी मच गई. चाहे बीजेपी हो या फिर सपा और बसपा, किसी ने भी ऐसे तत्वों को पार्टी में जगह और टिकट देने से कोई गुरेज़ नहीं किया.

मुख़्तार अंसारी और उनके परिवार के लोग बीएसपी में भी रहे और समाजवादी पार्टी में भी. उसी तरह आज़मगढ़ के यादव बंधु यानी रमाकांत यादव और उमाकांत यादव भी कभी बीजेपी, कभी सपा तो कभी बीएसपी से विधायक-सांसद बनते रहे.

उमाकांत यादव ने तो 2004 के लोकसभा चुनाव में मछलीशहर सीट से बीजेपी के तत्कालीन प्रदेश अध्यक्ष और इस समय पश्चिम बंगाल के राज्यपाल केशरीनाथ त्रिपाठी को हराया था,
रमाकांत यादव अपने भाई के साथ सपा, बसपा, में भी रहे और बीजेपी में भी

मऊ और ग़ाज़ीपुर में ख़ासा वर्चस्व रखने वाले अंसारी बंधुओं को समाजवादी पार्टी में शामिल करने को लेकर 2017 के विधानसभा चुनाव में यादव परिवार में ही घमासान मच गया. इस परिवार में मची कलह के तमाम दूसरे कारणों के अलावा एक प्रमुख कारण ये भी था.

पूर्व सांसद और पूर्व विधायक अफ़ज़ाल अंसारी बीबीसी से बातचीत में सीधे तौर पर आरोप लगाते हैं, “अखिलेश यादव और समाजवादी पार्टी को जब राज्यसभा और विधान परिषद चुनाव में हमारी मदद लेनी थी तो हम अच्छे हो गए और जब काम हो गया तो हम माफ़िया हो गए.”

साल 2012 के विधानसभा चुनाव में ब्रजेश सिंह जेल से ही भारतीय समाज पार्टी से चंदौली ज़िले की सैयदराजा सीट चुनाव लड़े, लेकिन हार गए. हालांकि उसके बाद उन्होंने उच्च सदन यानी विधान परिषद का चुनाव लड़ा और रिकॉर्ड वोटों से जीत हासिल की.

*’काम हो गया तो हम माफ़िया हो गए’*

भदोही में तीन बार से विधायक रहे विजय मिश्र का भी मुख़्तार अंसारी की तर्ज पर समाजवादी पार्टी ने टिकट काट दिया. विजय मिश्र अब अपने दम पर चुनाव लड़ रहे हैं. वो कहते हैं, “समाजवादी पार्टी के दोनों खेमों ने मुझे टिकट दिया था, फिर अचानक अखिलेश खेमे ने काट दिया. उसके बाद मुझसे बीएसपी और बीजेपी दोनों ने संपर्क किया लेकिन मैं कहीं नहीं गया. मेरी वजह से राजनीतिक पार्टियों की चार-छह सीटें सुनिश्चित होती हैं, अपने लिए मुझे इनकी नहीं जनता के स्नेह की ज़रूरत होती है और वो मुझे मिल रहा है.”

पत्रकार राघवेंद्र त्रिपाठी बताते हैं कि वर्चस्व की लड़ाई के पीछे रेलवे और दूसरे सरकारी ठेकों के अलावा नेपाल की सीमा से होने वाली हथियारों और दूसरी अन्य चीजों की तस्करी भी रही है. राजनीतिक संरक्षण के चलते ऐसे काम इन लोगों के लिए आसान हो गए और राजनीतिक दलों को इनकी वजह से सीटें जीतने में सहूलियत हो गई.

बताया जाता है कि अस्सी के दशक में हरिशंकर तिवारी का इतना दबदबा था कि गोरखपुर मंडल के जो भी ठेके इत्यादि होते थे वो बिना हरिशंकर तिवारी की इच्छा के किसी को नहीं मिलते थे, लेकिन हरिशंकर तिवारी कहते हैं कि अपराध से उनका कोई लेना-देना नहीं था.

उनके ख़िलाफ़ दो दर्जन से ज़्यादा मुक़दमे दर्ज थे, लेकिन सज़ा दिलाने लायक़ मज़बूती किसी मुक़दमे में नहीं दिखी, लिहाज़ा उनके ख़िलाफ़ लगे सारे मुक़दमे अब ख़ारिज हो चुके हैं.

आर्थिक मज़बूती के लिए जहां माफ़िया छवि के तमाम नेताओं ने राजनीति का रुख़ किया और उसके चलते तमाम ठेके इत्यादि हथियाए.

मऊ ज़िले के वरिष्ठ पत्रकार वीरेंद्र चौहान कहते हैं कि इन नेताओं के चुनाव जीतने के पीछे एक बड़ा कारण यह भी है कि इनमें से कई ने ख़ुद को ग़रीबों के मसीहा के रूप में भी पेश किया.

*माफ़िया या मसीहा*

वो बताते हैं, “मुख़्तार अंसारी या फिर हरिशंकर तिवारी जैसे लोग बार-बार विधायक सिर्फ़ इसलिए ही नहीं हो रहे हैं कि इनकी छवि बाहुबली की है. दरअसल ग़रीबों की व्यक्तिगत मदद और उनके काम के लिए अधिकारियों पर दबाव बनाना भी इनकी लोकप्रियता की एक बड़ी वजह है.”

हालांकि पूर्वांचल की राजनीति में ‘माफ़िया’ तत्व की शुरुआत करने वाले हरिशंकर तिवारी को राजनीति में पहली पटखनी दी इलाक़े के ही एक गुमनाम व्यक्ति राजेश त्रिपाठी ने. 2007 के विधान सभा चुनाव में बीएसपी के उम्मीदवार के तौर पर उन्होंने हरिशंकर तिवारी को हरा दिया.

2012 में राजेश त्रिपाठी फिर जीते और हरिशंकर तिवारी तीसरे नंबर पर आ गए. उसके बाद उन्होंने ख़ुद कोई चुनाव नहीं लड़ा. 2017 में हरिशंकर तिवारी ने पुत्र विनय शंकर तिवारी को बसपा से चुनाव लड़वा तो राजेश त्रिपाठी ने भाजपा का दामन थाम लिया लेकिन इस बार उन्हें हार का सामना करना पड़ा विनय शंकर तिवारी बसपा से चुनाव जीते गये.
हरिशंकर अपने दोनों बेटों समेत एक भांजे को भी राजनीति में स्थापित कर चुके हैं.

‘माफ़िया’ छवि वाले कुछ और नेताओं को भी चुनाव में पराजय का मुंह देखना पड़ा है, लेकिन तिवारी की तरह ऐसे दूसरे नेताओं ने भी अब अपनी अगली पीढ़ी के लिए राजनीतिक ज़मीन तैयार करनी शुरू कर दी है.

जानकारों के मुताबिक 2022 का चुनाव जहां तमाम दलों के राजनीतिक भविष्य के लिए अहम साबित होने जा रहा है, वहीं इन नेताओं के पारिवारिक भविष्य के लिए भी इसकी ख़ासी अहमियत होगी.

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