वैशाली, बिहार 20अप्रैल25*कृषि विधेयक: सबसे ऊपर है कारपोरेट स्वार्थ
राज्यसभा में जोर-जबरन पारित किए गए सर्वनाशी तीन कृषि विधेयकों को आखिरकार राष्ट्रपति का अनुमोदन मिल गया है, हालांकि विपक्षी दलों ने राष्ट्रपति से इस पर हस्ताक्षर न करने और विधेयकों को वापस भेजने का अनुरोध किया था । जब यह सब प्रक्रिया पूरी हो गई तो किसानों के पास रास्ते पर उतरना ही एकमात्र रास्ता रह गया । जब आरएसएस, भाजपा और मोदी सहित उनके मंत्रीमंडल के सभी सदस्यों द्वारा इन तीन नए कृषि कानूनों की प्रशंसा के गीत गाए जा रहे हैं, तो इन तीन कानूनों में क्या है, उस पर एक नजर डालना उचित होगा ।
तीन कानूनों के संबंध में
सबसे पहले हम चर्चा के लिए ‘कृषि उपज व्यापार और वाणिज्य (संवर्धन एवं सुगमीकरण) एक्ट, 2020’ को लेते हैं । इस कानून के लक्ष्य और उद्देश्य को बताते हुए सरकार द्वारा जारी किए गए बयान में कहा गया है कि किसानों के लिए ‘‘कृषि उपज मण्डी समिति एक्ट (एपीएमसी एक्ट) अपनी पसन्दीदा बाजार चुनने की आजादी को बाधित कर रहा है और इसी प्रकार यह वैकल्पिक बाजार तथा बाजार के लिए आवश्यक ढांचे के विकास हेतु निवेश के मामले मंे भी बाधा डाल रहा है ।
‘‘….. इस कारण से एक प्रतिस्पर्धामूलक और बाधा-बंधन से मुक्त आर्थिक व्यवस्था प्रदान करने के लिए एक केन्द्रीय कानून तैयार करने की जरूरत है । इसके फलस्वरूप किसानों और व्यवसायियों के लिए फसलों को अपनी पसन्द के बाजार में बिक्री के लिए एक कारगर, स्वच्छ और प्रतिस्पर्धी वातावरण निर्मित होगा, जिससे वे लाभजनक कीमत हासिल कर पाएंगे ।’’
इस प्रकार, मोदी सरकार के मुताबिक, इस कानून की वजह से ‘‘जंजीरों में बंधे’’ किसान ‘बंधन-मुक्त’ किसान में बदल गए । किसान और व्यवसायी, दोनों को अपने ‘‘पसन्द का बाजार चुनने की आजादी’’ प्राप्त हुई । कानून की धारा-छह में यह बात स्पष्ट रूप से कही गई है कि ‘‘निर्दिष्ट वाणिज्यिक इलाके के किसान और व्यवसायी दोनों व्यापार और वाणिज्य के लिए अपनी पसन्दगी की आजादी का भोग करेंगे ।’’
इसके साथ ही, धारा-छह (घ) में जो कहा गया है, वह भी उतना ही महत्वपूर्ण है । इस धारा में कहा गया है कि ‘‘कोई भी किसान, अथवा व्यवसायी, अथवा इलेक्ट्रानिक वाणिज्य (ई-काॅमर्स) और व्यापार से जुड़ी कोई संस्था, जिनका व्यवसाय और वाणिज्य के साथ सम्बन्ध है, उन पर किसी किस्म का शुल्क अथवा सेस (अधिभार) नहीं लगाया जा सकता है ।’’
इस कानून में इस धारा को जोड़ने का कारण क्या है? कानून में व्यवसाय, ई-काॅमर्स से जुड़ी संस्थाओं ऊपर, और थोड़ा खुलकर कहा जाए तो अडानी-वालमेर कम्पनी, रिलायंस रिटेल, आईटीसी, वाॅलमार्ट, पेप्सीको जैसे देशी-विदेशी कारपोरेटों के ऊपर कोई शुल्क या सेस नहीं क्यांे नहीं लगाया जाएगा?
असल रहस्य यह है कि मौजूदा कृषि बाजार कानून के तहत, अलग-अलग राज्यों में राज्य सरकारों को इस प्रकार का शुल्क और सेस वसूलने का अधिकार है । यह राज्य सरकारों द्वारा राजस्व जमा करने का एक माध्यम है । पंजाब में इसके माध्यम से कुल राजस्व का 8.5 प्रतिशत, हरियाणा में 6.5 प्रतिशत, राजस्थान में 3.4 प्रतिशत, उत्तर प्रदेश में 1.5 प्रतिशत और मध्य प्रदेश में 1.2 प्रतिशत प्राप्त होता है । एक आकलन में देखा गया है कि महाराष्ट्र की 305 मण्डियों से प्रतिवर्ष औसतन 5 लाख करोड़ रुपए का राजस्व प्राप्त होता है ।
इस केन्द्रीय कानून में ‘जंजीरों में जकड़े होने’ और ‘बंधन मुक्ति’ की, ‘स्वच्छ और प्रतिस्पर्धामूलक वातावरण’ निर्मित करने की न जाने कितनी बात की गई है । किन्तु हकीकत यह है कि उक्त केन्द्रीय कानून के जरिए विदेशी और देशी कारपोरेटों के हित में अस्वच्छ और असमान प्रतिस्पर्धा का वातावरण तैयार किया जा रहा है ।
इस कानून में कृषि उपज मण्डी समिति एक्ट को इस तरह प्रस्तुत किया गया है मानो जो भी दोष है उस सबके लिए यही जिम्मेदार है (जैसे कि कहावत है, ‘सारा दोष, नन्द घोष’) । लेकिन स्वयं भाजपा सरकार द्वारा गठित शांता कुमार कमेटी की रिपोर्ट में यह स्वीकार किया गया है कि लगभग छह प्रतिशत किसानों को ही न्यूनतम समर्थन मूल्य की सुविधा मिल पा रही है । यानी, एक तरह से सरकार ने यह स्वीकार कर लिया गया कि ‘पसन्दीदा बाजार में बिक्री की आजादी की राह में अवरोध पैदा करनेवाली’ कृषि उपज मण्डी एक्ट से भारत के करीब 94 प्रतिशत किसान बाहर हैं, वे इस अवरोध से परे हैं, वे जंजीरों में नहीं जकड़े हैं, वे पसन्दगी की आजादी के अधिकार का प्रयोग कर अपने पसन्द के खरीदार को अपनी उपजों की बिक्री कर रहे हैं ।
केन्द्र सरकार ने नए कानून में इस तथ्य को भी छुपाने का प्रयास किया गया है कि बिहार में वर्ष 2006 में कृषि उपज मण्डी एक्ट को खत्म कर दिया गया था । तब से 14 साल गुजर गए हैं । इस दौरान राज्य में भाजपा और नीतिश कुमार के जदयू की गठबंधन सरकार करीब 5 साल रही । नए कानून में इसके ‘लक्ष्य और उद्देश्य’ यह बताने की कोशिश की गई है कि मण्डी कानून नहीं होने से किसान अपने पसन्द का खरीदार चुनने की आजादी का उपभोग करेगा । फलस्वरूप, वह लाभजनक कीमत पाएगा और दूसरी ओर निवेश की हवा बहने लगेगी । लेकिन बिहार में ऐसा क्यों नहीं हुआ? इसके उलट बिहार में किसानों की स्थिति और भी खराब हो गई । इसके एक प्रमाण है बिहार से पलायन कर बाहर जाने वाले मजदूरों की वर्तमान संख्या । इनकी संख्या है 79,49,853 (करीब 80 लाख) ।
नए कानून बनाकर इस तथ्य को भी छुपाने का प्रयास किया गया है कि इसी बीच 36 राज्यों एवं केन्द्र शासित प्रदेशा में से 18 में कृषि सुधार के नाम पर कारपोरेट घरानों के बेरोकटोक प्रवेश की इन्तजाम कर दिया गया है । इसी बीच 20 राज्य सरकारों ने ठेका खेती की अनुमति प्रदान कर दी है । इसी बीच 19 राज्यों में बड़े खरीदारों, खाद्यान्न भण्डारकों, निर्यातकों, बड़े खुदरा खरीदारों को किसानों से सीधे कृषि उपजों को खरीदने की अनुमति दे दी गई है ।
इसमें आश्चर्य करने की कोई बात नहीं है । हमारे देश में करीब 30 साल पहले से ही नव-उदारवादी आर्थिक नीतियों पर जोरदार तरीके से अमल किया जा रहा है, केन्द्र एवं राज्यों में चाहे किसी भी पार्टी की सरकार क्यों रही हो । नतीजे में, आज जब करोना महामारी से लाखों-लाख लोग पीड़ित हो रहे हैं और हजारों-हजार लोग मर रहे हैं, तो पहले अध्यादेश के माध्यम से और फिर जोर-जबरन विधेयक पारित कर नरेन्द्र मोदी सरकार इस नव-उदारवादी नीति को पूर्णता तक ले जाना चाहती है, जिसे देश की समस्त जनता के सतत विरोध और प्रतिरोध के कारण अब तक पूरी तरह लागू नहीं किया जा सका था ।
इसी प्रकार, जहां नए कानून में किसानों की फसल के लाभदायक कीमत की बात आई है, लेकिन पूरे कानून में इस मामले में केन्द्र सरकार की भूमिका के बारे में एक शब्द भी नहीं है । किसानों को अपनी फसल की लाभदायक कीमत प्राप्त हो, इसे पूरी ‘स्वच्छ और प्रतिस्पर्धी वातावरण’ के ऊपर छोड़ दिया गया है ।
यह करने के लिए नरेन्द्र मोदी सरकार जिस सुज्ञात तथ्य को सचेत रूप से नकार देना चाहती है वह यह है कि हमारे देश में कृषि कार्य से जुड़े छोटे और सीमान्त किसान, ऐसे किसान जो दो हेक्टेयर से कम जमीन के स्वामी हैं, उनकी संख्या कुल किसानों का करीब 84 प्रतिशत है । अथवा, वर्ष 2015-16 के दसवें कृषि जनगणना के अस्थाई रिपोर्ट के अनुसार, छोटे और सीमान्त किसानों द्वारा की जानेवाली खेती की जमीन का परिमाप, जहां वर्ष 2010-11 में 1.15 हेक्टेयर था, वह वर्ष 2015-16 में कम होकर 1.01 हेक्टेयर रह गया । दूसरी ओर, एक और महत्वपूर्ण तथ्य यह है कि वर्ष 2015-16 की कृषि जनगणना के आंकड़ों के मुताबिक जहां वर्ष 2010-11 में छोटे जोत का परिमाप 13 करोड़ 83 लाख एकड़ था, वह वर्ष 2015-16 में बढ़कर 14 करोड़ 60 लाख एकड़ हो गया ।
ऐसी एक परिस्थिति में, जहां करीब 84 प्रतिशत कृषक आबादी छोटे और सीमान्त किसानों की है, वे एक ‘कारगर, स्वच्छ और प्रतिस्पर्धी वातावरण’ में देशी-विदेशी कारपोरेट के आमने-सामने बैठकर मोलभाव करेंगे और इससे भी बड़ी बात यह कि वे अपने उत्पादित फसलों के लिए लाभप्रद कीमत हासिल कर लेंगे?
जहां हाईड्रोक्लोरोक्विन दवा के लिए ट्रम्प द्वारा दी गई जवाबी कार्यवाही की धकमी को मोदी सरकार एक दिन के लिए भी झेल नहीं पाई, वहां मोदी यह उम्मीद क्यों करते हैं कि 1.06 हेक्टेयर जमीन के मालिक एक छोटा किसान देशी-विदेशी कारपोरेट का सामना कर पाएंगे?
असल में, जो चीज अनिवार्य था, वह यह कि कृषि उपज मण्डी कानून में सकारात्मक सुधार करना, न कि उसे पूरी तरह ध्वस्त कर देना । मोदी सरकार यही करने का प्रयास कर रही है ।
वर्ष 2015-16 में संसद की कृषि संबंधी संसदीय स्थाई कमेटी ने अपनी रिपोर्ट में कहा था कि कृषि मण्डी कमेटियांे द्वारा मण्डी कानून को वास्तव में लागू किया जाए, इसके लिए कृषि मण्डी कमेटियों को निष्प्रभावी बनाने की नहीं, बल्कि संशोधन कर उसे शक्तिशाली बनाने की जरूरत है । इस संसदीय कमेटी की सिफारिश थी कि सरकार द्वारा पहल कर ग्रामीण हाटों को फिर से दुरूस्त किया जाए, जिससे वे कृषि उपजों के विपणन का एक वास्तविक वैकल्पिक केन्द्र बन सकें ।
मोदी सरकार ने स्थाई कमेटी के इस पूरी तरह उचित सुझाव को ठीक इस कारण से स्वीकार नहीं किया क्योंकि ऐसा करने से कारपोरेट स्वार्थ की रक्षा नहीं होती । इसी वजह से उन्होंने कृषि उपज मण्डी कानून को ध्वस्त कर दिया । बाॅथटब के पानी के साथ-साथ बच्चे को भी फेंक दिया गया ।
कृषि, किसान और देश के लिए विनाशकारी तीन कृषि के संबंध में पहले से चर्चा करते आ रहे हैं । इस बार हम बात करेंगे केन्द्रीय वित्त मंत्री निर्मला सीतारामण के 26 अक्टूबर, 2020 के एक बयान को लेकर । उन्होंने अभयवाणी बोला है — न्यूनतम समर्थन मूल्य था और आगे भी रहेगा । केन्द्रीय मंत्रीमहोदया को यह बात बार-बार क्यों कहना पड़ रहा है? कारण है देश भर में हो रहा विरोध । विशेष रूप से पंजाब, हरियाणा और पश्चिमी उत्तर प्रदेश में, जहां इसने जोरदार प्रतिवाद का शक्ल अख्तियार कर लिया है । जो प्राथमिक रूप से किसानों का प्रतिवाद था, वह सम्पूर्ण समाज के समर्थन से परिपुष्ठ होकर जन आन्दोलन का शक्ल ले चुका है ।
अब हम दूसरे कानून पर चर्चा करेंगे । इसक चमचमाता हुआ नाम दिया गया है ‘किसान (सशक्तिकरण एवं सुरक्षा) मूल्य सुनिश्चितीकरण एवं फार्म सेवा समझौता एक्ट, 2020’ । इस कानून में चार अध्याय हैं: 1) प्राथमिक विषय, 2) खेती संबंधित समझौता, 3) विवाद निपटारा और 4) विविध ।
इस कानून में इसके नाम में ही किसानों द्वारा उत्पादित फसलों की कीमत सुनिश्चित करने की बात कही गई है । किसानों को क्षमतावान बनाने और सुरक्षा प्रदान करने की बात की गई है । तब यह लाजिमी तौर पर यह सवाल उठता है कि इस पर विवाद क्यों? कोरोना वाइरस से छिन्न-भिन्न जनजीवन पर ‘जले पर नमक छिड़कने’ के समान 5 जून, 2020 को अध्यादेश क्यों जारी किया गया? इन तीन कानूनों की घोषणा के साथ कोराना का मुकाबला करने का क्या दूर-दूर तक कोई संबंध है? विशेष रूप से, जब किसानों की सुरक्षा प्रदान करने, क्षमतावान बनाने की बात कही जा रही है तो फिर किसानों पर ये अध्यादेश क्यों लाद दिए गए?
कानून में क्या है?
इस कानून के शुरू में ही, इसकी भूमिका में कहा गया है कि खेती से संबंधित समझौता के लिए एक कानून के मार्फत राष्ट्रीय मूल ढांचा तैयार किया गया है । यह किसानों को सुरक्षा प्रदान करेगा एवं क्षमतावान बनाएगा । जब वे कृषि व्यापार एवं प्रसंस्करण के साथ जुड़े कारोबारी थोक वस्तुओं के क्रेताओं एवं निर्यातकों अथवा बड़े खुदरा व्यवसायियों के साथ कृषि निवेश के मामले में और तदोपरान्त खेती से उत्पादित फसलों की बिक्री के मामले में न्यायपूर्ण नियमों तथा साफ-सुथरे तरीके से दोनों पक्षों के बीच आपसी सहमति के आधार पर तथा न्यायपूर्ण एवं स्वच्छ पद्धति से लाभप्रद कीमत निर्धारित करने की बात करते हैं तो दोनों पक्षों की मोलभाव करने की क्षमता पर विचार करना नितांत आवश्यक है । दोनों पक्ष में एक पक्ष है अडानी, अम्बानी, या वालमार्ट, पेप्सको जैसे दैत्याकार कारपोरेट घराने और दूसरा पक्ष है भारत के किसान, जिनमें 85 प्रतिशत छोटे एवं सीमान्त किसान हैं, जिनकी जमीन का औसत परिमाप है 1.38 हेक्टेयर ।
इस प्रकार की चरम गैर-बराबरी की परिस्थिति में दोनों पक्षों की आपसी सहमति के पीछे अदृश्य रूप से देशी-विदेशी कारपोरेट घरानों का भीषण दबाव काम कर रहा होगा, यह समझने में कोई समय नहीं लगेगा ।
कानून के उद्देश्य एवं लक्ष्य के संबंध में बयान में स्पष्ट तौर कहा गया है कि ‘छोटे आकार के जोत की वजह से भारतीय खेती की विशिष्टता छोटे-छोटे टुकड़ों में विभाजन है । इसकी कई सारी कमजोरियां हैं, जैसे कि मौसम के ऊपर निर्भरता, उत्पादन की अनिश्चितता और एक ऐसा बाजार जिस पर पहले से भरोसा नहीं किया जा सकता । इसके फलस्वरूप, उत्पादन कार्य में लगनेवाले उपकरण तथा उत्पादित वस्तुओं के रखरखाव, इन दोनों ही मामलों में भारतीय कृषि संकटजनक और अफलदायी हो गई है । इन समस्याओं का मुकाबला करने के लिए आवश्यक है कि उत्पादकता को बढ़ाया जाए, उत्पादन के हिसाब से व्यय किया जाए तथा उत्पादन का फलप्रद मुद्रीकरण किया जाए । इन सबके फलस्वरूप किसानों की आमदनी बढ़ेगी । यह समझा जा सकता है कि मिलों में उत्पादित वस्तुओं के क्षेत्र में समझौता होने से मुद्रीकरण की प्रक्रिया को तेजी आएगी, जिसका प्राथमिक उद्देश्य है विभिन्न चरणों में कृषि को संकट मुक्त करना, उच्च मूल्य से युक्त कृषि उपजों के उत्पादन और उसके प्रसंस्करण के लिए निवेश में वृद्धि करना, बड़े पैमाने पर निर्यात के मामले में तेजी लाना तथा आवश्यकता अनुसार कार्यकुशलता बढ़ने से किसान अतिरिक्त सुविध का भोग करेंगे । उपरोक्त बयान से मोदी सरकार के तीन कृषि कानूनों के पीछे की पूरी नियत दिन के उजाले के समान स्पष्ट हो गई है । ठेका खेती है उच्च मूल्य से युक्त कृषि उत्पादन के लिए, इसके प्रसंस्करण के लिए और अन्ततः इसके निर्यात के लिए । यहां देश की खाद्य सुरक्षा जैसे अत्यन्त महत्वपूर्ण प्रश्न पूरी तरह नदारद है । मोदी सरकार के इस कानून में ‘लाभप्रद कीमत’, ‘किसानों की आय में वृद्धि’ तथा ‘किसानों द्वारा अतिरिक्त सुविधा का भोग’ जैसे विभिन्न शब्दों का आडम्बर तो है, किन्तु मोदी सरकार का पूरा प्रस्ताव खाद्य सुरक्षा के मामले में देश को 1950-60 के दशक में पीछे ले जाने वाला है, जहां भारत के विशाल बहुसंख्यक आम आदमी को दो वक्त दो मुट्ठी भात-रोटी खाने के लिए नए रूप में पीएल-480 जैसी सहायता के लिए विदेशों की ओर ताकना पड़ेगा । यह कानून मोदी सरकार द्वारा आत्म-निर्भर भारत अभियान के नाम पर एक बार फिर साम्राज्यवाद के ऊपर निर्भर बनाने की परियोजना है ।
दासता की सनद
ठेका खेती के विषय में कानून का दूसरा अध्याय खेती से संबंधित अनुबंध (समझौता) के बारे में है । इस अध्याय में कुल मिलाकर 10 धाराएं हैं । पहली धारा में किसानों और उद्योगपति के बीच अुनबंध की बात कही गई है । इसमें जहां उद्योगपति खेती के लिए आवश्यक सामग्री की आपूर्ति करेंगे, वहीं किसान अपना उत्पादन अनुबंध के अनुसार उद्योगपति को देंगे । जिस प्रकार इसमें आपूर्ति की बात होगी, उसी प्रकार आपूर्ति का निर्दिष्ट समय, गुणवत्ता, छंटाई-बिनाई, मोटा तौर पर मात्रा, कीमत और इस तरह की अन्य विषयों को उल्लेख होगा । हमने पहले ही कहा है कि यह अनुबंध पत्र दोनों पक्षों के बीच लिखित में होगा । सहज ही यह अनुमान लगाया जा सकता है कि इसमें जो पक्ष बलशाली होगा, अनुबंध में वह पक्ष हावी होगा । इस विषय को अलग रखकर थोड़ी देर के लिए भविष्य की कल्पना की जाए, और भविष्य की बात क्यों करें, यह तो अभी ही हमारे देश में हो रहा है । पेप्सी कम्पनी के साथ अनुबंध की शर्तों को लेकर पेप्सीको की ओर से किसानों पर क्षतिपूर्ति के बतौर एक लाख रुपए का दावा ठोकने का विवाद देखा गया है । इस समस्या के समाधान के लिए कानून में क्या कहा गया है?
विवाद निपटारा के संबंध में
कानून के तीसरे अध्याय में विवाद निपटारे से संबंधित विषया को लिया गया है । इस अध्याय में कुल तीन धाराएं हैं । पहली धारा मेें अनुबंध करने वाले दोनों पक्षों को लेकर निपटान बोर्ड के गठन का प्रावधान है । विवाद नजर आने पर, पहले इस बोर्ड में विचार करने की बात की गई है । किन्तु विवाद का निपटारा नहीं होने पर अध्याय की दूसरी धारा में कहा गया है कि ऐसे मामले में विवाद को तहसीलदार के समक्ष हस्तांतरित किया जाएगा । दोनों पक्ष की बात सुनने के बाद तहसीलदार जो निर्णय देगा उसे कानून की भाषा में दिवानी अदालत के आदेश के समकक्ष माना जाएगा । यह स्पष्ट है कि हमारे देश के प्रशासनिक विभाग और न्याय विभाग के दायित्व और कर्तव्य के संबंध में सुनिर्दिष्ट अलगाव की सीमारेखा को भी इस कानून में मिटा दिया गया है ।
मान लिया जाए कि अनुबंध से बंधा कोई किसान समझता है कि तहसीलदार का निर्णय उसके खिलाफ है । वह इस मामले को आगे अदालत में ले जाना चाहता है । मौजूदा कानून उसे यह अधिकार देता है क्या? नहीं, नहीं देता है । वह चाहे तो इस मामले में तहसीलदार से ऊपर के अधिकारी, कानून की भाषा में कलेक्टर अथवा कलेक्टर द्वारा नियुक्त अतिरिक्त कलेक्टर के अधीन न्यायीय व्यवस्था के पास जा सकता है । इसके बारे में कानून में कहा गया है कि इसके तहत दिया गया निर्णय भी दिवानी अदालत के फैसले के समकक्ष हैसियत रखेगा ।
इस कानून में विवाद निपटारे के बारे में यही अंतिम बात कही गई है । इसके निर्णयों से असंतुष्ट किसान के पास न्याय पाने के लिए अदालत का दरवाजा पूरी तरह बन्द है । कानून की भूमिका में तथा इसके उद्देश्य और लक्ष्य से संबंधित हिस्से में किसानों के हितों की रक्षा करने तथा उन्हें क्षमतावान बनाने की बात कितनी भी क्यों न की गई हो, न्यायोचित नियमों और स्वच्छ तौर-तरीकों का चाहे कितना भी हवाला क्यों न दिया गया हो, दोनों पक्षों की आपसी सहमति की चाहे कितनी भी बात क्यों न की गई हो, इस कानून में कारपोरेट घरानों के स्वार्थ की ओर कितना प्रबल झुकाव है, वह विवाद निपटान के प्रकरण से एकदम स्पष्ट हो जाता है । हालांकि कानून में कहा गया है कि ऐसा कोई अनुबंध नहीं किया जाएगा जो बंटाईदार किसानों के अधिकारों के लिए हानिकर हो, लेकिन अगर विवाद निपटान के मामले में जमीन के मालिक किसानों की यह हाल है तो फिर बंटाईदार किसानों के हितों की रक्षा किस प्रकार हो पाएगी? इसी प्रकार, कानून की धारा क्रमांक 7 में स्पष्ट रूप से कहा गया है कि अनुबंधित उत्पादक के रूप में किसानों के मामले में राज्य सरकार का कानून पूरी तरह अकार्यकारी होगा, जबकि भारतीय संविधान की सातवीं अनुसूची में कृषि को राज्य से संबंधित विषय की तालिका में शामिल किया गया है । इसके अलावा, धारा क्रमांक 20 में कहा गया है कि किसानों को उनकी उपज के कीमत की अदायगी किस प्रकार की जाएगी, उसकी पद्धति और तौर-तरीका राज्य सरकार निर्धारित कर सकती है । किन्तु इस कानून में प्राप्त होने वाली कीमत किस प्रकार निर्धारित की जाएगी, इस मामले में किसी प्रकार का हस्तक्षेप करने का अधिकार राज्य सरकार को नहीं दिया गया है । इस प्रकार, यदि किसी कारण से फसलों की कीमत गिर रही है तो कानून की पांचवीं धारा में सुनिश्चित कीमत की बात कही गई है, लेकिन इसका कोई उल्लेख नहीं है कि यह किस प्रकार निर्धारित की जाएगी या कौन निर्धारित करेगा और इसमें राज्य सरकार की क्या भूमिका होगी ।
हमारे देश में गुलामी के दौर में अफीम और नील की खेती का अनुभव हमारे पास है । वर्तमान समय में हमारे देश के विभिन्न प्रदेशों में ठेका खेती का बहुत ही कडुवा अनुभव रहा है । अफ्रीका और लैटिन अमेरिका में ठेका खेती का परिणाम हमारे आँखों के सामने है । यहां तक कि स्वयं अमेरिका में ठेका खेती ने बड़ी संख्या में लघु और मध्यम आकार की खेती के लिए संकट को बुलावा दिया है । एक समीक्षा में कहा गया है कि अमेरिका के ग्रामीण अंचल में आर्थिक निराशा और भीषण संकट के चलते घरेलू हिन्सा, मानसिक बीमारी व्याप्त है । नतीजे में, अमेरिका के 84 प्रतिशत खाद्यान्न पर चार भीमकाय कृषि व्यवसायी कारपोरेट घरानों का नियंत्रण है । और इन्हीं चारों का पूरी दुनिया के 70 प्रतिशत पर नियंत्रण है ।
अमेरिका में गैर-कृषि कार्य से जुड़े श्रमिकों की तुलना में कृषि कार्य से जुड़े श्रमिकों की आत्महत्या की संख्या दुगनी है । अब भी समय है, आगे की गाड़ी के उलट जाने का नतीजा देखकर, पीछे के गाड़ीवानों को सावधान हो जाने का, भारत को सर्तक हो जाने का, किसान जनता को सर्तक हो जाने का ।
भारत की नरेन्द्र मोदी सरकार कृषि और किसानों की छाती पर चढ़कर तीन कानूनों का त्रिशुल चला रही है । इसके दो परिणामांे के बारे में हम पहले चर्चा कर चुके हैं । अब हम त्रिशुल के तीसरे नोंक, तीसरे कानून, आवश्यक वस्तु अधिनियम, 2020 पर चर्चा करेंगे ।
डर दूर करने के लिए
कृषि और किसान के हितों की विरोधी इस सर्वनाशी कानून लाने के पीछे के उद्देश्य और लक्ष्य के बारे में जारी बयान में यह बात स्पष्ट रूप से कही गई है कि आवश्यक वस्तु अधिनियम, 1955 के अत्यन्त कठोर नियमबद्ध नियंत्रण के कारण पैदा हुए डर को दूर करने के लिए यह कानून लाया गया है । पूराने कानून से कौन भयभीत था? इस प्रश्न का जवाब है नये कानून में यह कहकर दिया गया है: ‘‘जो कृषि क्षेत्र में अविलम्ब निवेश करना चाहते हैं’’, यानी कि अडानी, अम्बानी, वालमार्ट, पेप्सीको जैसे देशी-विदेशी कारपोरेट । सोचिए तो ये भयभीत हैं?
विश्वास नहीं होता, तो भी कानून में इस तरह से ही कहा गया है ।
इस कानून में आगे यह भी कहा गया है कि ‘‘हालांकि भारत में प्रायः सभी कृषि वस्तुओं का आधिक्य है, किन्तु किसानों को उसकी अच्छी कीमत नहीं मिलती है । कीमत नहीं मिल पाने का कारण है वर्ष 1995 का आवश्यक वस्तु अधिनियम; इसकी नियंत्रणकारी व्यवस्था की वजह से कोल्ड स्टोरेज, गोदाम, प्रसंस्करण उद्योग और निर्यात करनेवाले उद्योगपति निरूत्साहित होकर निवेश करने से हिचकिचाते हैं ।’’
इस कानून में यह भी कहा गया है कि ‘‘कृषि के क्षेत्र में अविलम्ब निवेश कोे प्रोत्साहित करने के लिए, प्रतियोगिता बढ़ाने के लिए तथा किसानों की आय में वृद्धि के लिए ऐसा वातावरण निर्मित करने की नितांत जरूरत है जहां सहज-स्वछंद व्यापार व वाणिज्य किया जा सके तथा आवश्यक वस्तु अधिनियम के नियमों से पैदा होनेवाले डर को दूर किया जा सके ।’’
इसके लिए 1955 के कानून उलटकर लाए गए 2020 के कानून के ‘उद्देश्य एवं लक्ष्य’ से संबंधित बयान में यह साफ कर दिया गया है कि यह केवल और केवल कारपोरेट के स्वार्थ में किया गया है, हालांकि बीच-बीच में किसानों की आय में वृद्धि की बात की गई है ।
नरेन्द्र मोदी ने तो इससे कहीं आगे जाकर कह दिया है कि ‘‘किसानों को केवल अन्नदाता की भूमिका में सीमित न रखकर उन्हें उद्योगपति बनने की सुविधा प्रदान की जा रही है ।’’
मोदी के इसके पहले के अन्य कई जुमलों के समान ही यह भी एक जुमला है । कौतुहल का विषय यह है कि अगर सभी किसान उद्योगपति बना जाएंगे तो उद्योगपतियों के उद्योगों में तैयार माल का खरीदार कहां से आएगा?
सारा दोष है 1955 के कानून का
1955 के कानून के प्रति नरेन्द्र मोदी को इतना गुस्सा क्यों है? कानून में ऐसा क्या है, जिसके कारण इसके प्रति इतना रोष है !
कानून में ‘कई वस्तुओं और उत्पादों की आपूर्ति सुनिश्चित करने के लिए कहा गया है कि ‘यदि जमाखोरी और कालाबाजारी के कारण इसमें बाधा उत्पन्न होती है तो इससे आम जनता का स्वाभाविक जीवन प्रभावित होगा ।’ कानून ऐसा न होने देने का वायदा करता है । कानून में यह भी कहा गया है कि ‘केन्द्र सरकार की ओर से यह अनिवार्य और जरूरी है कि अति आवश्यक वस्तुओं की आपूर्ति बनाए रखना, अथवा इसका संतुलित वितरण एवं यथायथ दाम पर उसकी प्राप्ति सुनिश्चित करना ।’
इस प्रकार जनजीवन के नित्य-प्रतिदिन के लिए आवश्यक वस्तुओं, जैसे कि चावल, आटा, दाल, आलू, प्याज, तेल, तिलहन जैसी अति-आवश्यक वस्तुओं की सूची बनाकर केन्द्र सरकार उसके उत्पादन, आपूर्ति और वितरण के मामले में नियंत्रण रखती थी । और यह नियंत्रण रखने की जरूरत के कारण ही उपरोक्त वस्तुओं के भण्डारन की अधिकतम सीमा तय की गई थी । इस सीमा के अतिक्रमण को कानून का उल्लंघन मानकर विचार किया जाता था । कानून तोड़ने वालों, अर्थात गैर-कानूनी जमाखोरी और इसके साथ अभिन्न रूप से जुड़ी कालाबाजारी करने पर दंड का प्रावधान किया गया था तथा जमाखोरी के मामले में सरकारी अधिकारी को झूठा बयान देने पर उसे भी कानून में दंडनीय अपराध माना गया था । जमाखोरी करने, अथवा/एवं गलत तथ्य देने पर सात वर्ष तक कारावास की सजा का प्रावधान था ।
1955 के आवश्यक वस्तु अधिनियम पर विचार करने से स्पष्ट होगा कि 14 पन्नों के कानून में 8 पन्ना जमाखोरी और कालाबाजारी से संबंधित विषयों और इसके उल्लघंन के मामले में सजा के विषय में था । इसकी 16 धाराओं में से 10 धाराएं कानून तोड़ने और इसकी सजा के संबंध में था ।
अवश्य ही, जीवन और इतिहास साक्षी है कि कानून अपने आपमें सर्वशक्तिमान नहीं होता है । उस पर अमल करना होता है और दबाव देकर, नीचे से दबाव देकर, जन आन्दोलन के माध्यम से दबाव बनाकर इसे लागू करने के लिए बाध्य करना होता है ।
किन्तु एक जनपक्षीय कानून, कुछ हद तक जनता के हितों का वाहक कानून जन आन्दोलन खड़ा करने में सहायक होता है ।
मोदी के रोष का पहला कारण है कानून केन्द्र सरकार के हस्तक्षेप करने पक्ष में है और वह भी जनता के स्वार्थ में । मोदी का नव-उदारवादी दर्शन इसका घोर विरोधी है । वे जनता के स्वार्थ की बात हो तो बाजार और प्रतिस्पर्धा के पक्ष में हैं, लेकिन अगर अडानी-अम्बानी के स्वार्थ की बात हो तो सरकारी हस्तक्षेप और उदारता के पक्ष में हैं । दूसरा कारण है 1955 के कानून में गैर-कानूनी जमाखोरी का दंडनीय अपराध की श्रेणी में रखकर विवेचना की गई थी, जो मोदी के दर्शन के पूरी तरह विपरीत है । कानून में इस किस्म का प्रावधान, मोदी की विचार में उद्योगपतियों के बीच डर का संचार करता है, निवेश को निरूत्साहित करता है ।
इसीलिए, 1955 के कानून को रद्र कर वर्ष 2020 का आवश्यक वस्तु अधिनियम लाया गया है । पूराने कानून को बदलकर लाए गए नए कानून में तर्क देते हुए आरएसएस-भाजपा और मोदी सरकार द्वारा तरह-तरह के तर्क-जाल फैलाया है ।
वे कह रहे हैं कि 1955 का भारत और 2020 का भारत एक नहीं है । ठीक बात है । उस समय प्रधानमंत्री नेहरू अपने मुंह से कम-से-कह यह तो कहा था कि कालाबाजारी करने वालों को लैम्प-पोस्ट से लटकाया जाएगा । इस समय तो मोदी कालाबाजारी, जमाखोरी जैसे शब्दों को राष्ट्रीय शब्दकोष के पन्नों से हटा देना चाहते हैं ।
वे कह रहे हैं कि भारत में प्रायः सभी कृषि वस्तुओं का आधिक्य है । लेकिन किसान लाभप्रद कीमत नहीं पा रहे हैं । कैसे पाएंगे? मोदी का जवाब है देशी-विदेशी बड़े पूंजीपति निवेश नहीं कर रहे हैं । इसी के कारण शीतगृह, गोदाम, प्रसंस्करण कारखाना तथा निर्यात का ढांचा खड़ा नहीं हो पा रहा है ।
हमारा कहना है कि निश्चित ही कृषि क्षेत्र में विगत 50 वर्षों में उत्पादन में काफी वृद्धि हुई है । किन्तु उस अनुपात में किसानों की आमदनी नहीं बढ़ी है । इसका कारण है विगत 50 वर्षों के दौरान केन्द्र एवं राज्य सरकारों की किसान और कृषि विरोधी नीतियां ।
मोदी विगत छह वर्षों से किसानों, विशेष रूप से छोटे और सीमान्त किसानों, मध्यम किसानों की आय बढ़ाने के लिए क्या किया है? वे नव-उदारवादी नीतियों का अनुशरण करते हुए बीज, खाद, कीटनाशक, सिंचाई, पेट्रोल-डीजल इत्यादि की कीमत बढ़ाते गए हैं, सब्सिडी (अनुदान) में कटौती करते गए हैं, दूसरी और किसानों को अपने उत्पादित फसलों की न्यायोचित कीमत प्राप्त हो, जिसका उन्होंने वायदा किया था, इसके लिए कोई व्यवस्था नहीं किया । उल्टे, सुप्रीम कोर्ट जाकर उन्होंने हलफनामा दिया कि वे न्यूनतम समर्थन मूल्य नहीं दे सकते हैं, क्योंकि इससे बाजार में विकृति आती है ।
नव-उदारवादी नीति और इसका दर्शन ने कृषि क्षेत्र के लिए आवंटन बढ़ाने, निवेश बढ़ाने और सरकार की भूमिका को बढ़ाने की राह में बाधा पैदा किया है । और यही दर्शन मोदी को बेरोकटोक गति से आगे ले जा रहा है । यही कारण है कि आवश्यक वस्तु कानून, 2020 में उनके लिए कोई बंधन नहीं हैं जो शीतगृह बनाएंगे, गोदाम तैयार करेंगे, खाद्य पदार्थों का प्रसंस्करण करेंगे और निर्यात का काम करेंगे । मोदी सरकार ने देशी-विदेशी कारपोरेटों को सीमाहीन जमाखोरी का अधिकार दे दिया है ।
ऐसा होने पर आवश्यक वस्तुओं की कीमत बढ़ने पर क्या केन्द्र सरकार की कोई भूमिका नहीं होगी? होगी । कानून की भाषा में कहा जाए तो ‘यह हस्तक्षेप बेहद असाधारण परिस्थितियों में किया जाएगा, जिसमें युद्ध, अकाल, आसमान छूती मूल्यवृद्धि और गंभीर प्राकृतिक आपदा शामिल है । यानी कि, चावल, आटा, तेल, शक्कर, आलू, प्याज आदि के दाम चाहे कितनी भी क्यों न बढ़ जाए, सरकार उदासीन रहेगी, यदि इसके साथ युद्ध, अकाल और गंभीर प्राकृतिक आपदा न जुड़ी हो ।
रोजमर्रा के जीवन के लिए आवश्यक वस्तुओं के संबंध में कानून में कहा गया है कि ‘पिछले 12 महीने अथवा विगत 5 साल के खुदरा कीमत के औसत निकालने पर जो भी कम होगा, यदि फल, शाक-सब्जी की कीमत उससे 100 प्रतिशत बढ़ जाए और ऐसे ही खराब होने वाले खाद्य पदार्थों की कीमत में उपरोक्त फार्मूले के अनुसार 50 प्रतिशत की वृद्धि हो जाए तो केन्द्र सरकार ऐसे मामलों में हस्तक्षेप करेगी ।’ नतीजे में, चावल, आटा, दाल, प्याज, तेल, शक्कर जैसे नित्य प्रतिदिन की आवश्यक वस्तुओं की मूल्यवृद्धि और इसमें केन्द्र सरकार के हस्तक्षेप का मामला आखिर में पार्टी गणीत की भेंट चढ़ गया, निश्चित ही जब तक युद्ध, अकाल और प्राकृतिक आपदा न हो ।
त्रिशुल, तीन कृषि कानूनों पर अंतिम बात
तीन कृषि कानूनों को पूरा प्रस्ताव अंततः एक अभिन्न लक्ष्य द्वारा संचालित है और वह है किसान आधारित कृषि समाप्त कर कारपोरेट आधारित कृषि के दौर में प्रवेश । पहला कानून सम्पूर्ण कृषि क्षेत्र को कारपोरेट के लिए पूरी तरह खोल देने के लिए है । प्रतियोगिता में कारपोरेट को अतिरिक्त सुविधा प्रदान करने के लिए है । दूसरे कानून में ठेका खेती का प्रावधान किया गया है और तीसरे कानून में पहले दो कानून का जो परिणाम होगा, उसे बंधनमुक्त करने का प्रावधान किया गया है । नतीजे में, तीनों कानून मिलकर एक हैं ।
मोदी जिस रास्ते पर चल रहे हैं, इससे पहले उस रास्ते पर कई देश चल चुके हैं । इस रास्ते पर अफ्रीका, एशिया के कई देश और यहां तक कि अमेरिका भी चल चुका है । इसका क्या परिणाम हुआ है, यह हम पहले बता चुके हैं । इस बार भी अमेरिकी कृषि सचिव आॅल बूजेर के बयान का जिक्र करूंगा । उन्होंने कहा था, ‘‘या तो तुम बड़े बनो और अपनी आय दुगनी करो । नहीं कर पाते हो तो विदा लो ।’’
हमारे अन्नदाता विदाई नहीं लेना चाहते हैं । वे मोदी की विदाई का इन्तजाम कर रहे हैं ।
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