March 29, 2024

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लखनऊ29दिसम्बर*ओबीसी आरक्षण के लिए आयोग की सिफारिश जरूरी है...उत्तराखंड की चिट्ठी से खुल गया यूपी के अफसरों का राज*

लखनऊ29दिसम्बर*ओबीसी आरक्षण के लिए आयोग की सिफारिश जरूरी है…उत्तराखंड की चिट्ठी से खुल गया यूपी के अफसरों का राज*

लखनऊ29दिसम्बर*ओबीसी आरक्षण के लिए आयोग की सिफारिश जरूरी है…उत्तराखंड की चिट्ठी से खुल गया यूपी के अफसरों का राज*

उत्तर प्रदेश में पिछड़ों की स्थिति के आकलन के लिए आयोग की सिफारिश पर ही शहरी निकायों के चुनाव में ओबीसी आरक्षण मिल सकता है, इस बात से यूपी के आला अफसर वाकिफ थे। दरअसल, सुरेश महाजन बनाम मध्य प्रदेश सरकार मामले में सुप्रीम कोर्ट फैसले के बाद उत्तराखंड में बनाए गए एकल सदस्यीय समर्पित आयोग के अध्यक्ष की तरफ से 15 नवंबर को ही यूपी के मुख्य सचिव को पत्र लिखा गया था। पत्र में मुख्य सचिव से बैठक के लिए कहा गया था। इस बात का जिक्र भी किया गया था कि यह आयोग सुप्रीम कोर्ट के आदेश के क्रम में निकायों में पिछड़ी जातियों के पिछड़ेपन की स्थिति के आकलन के लिए बनाया गया है।

मध्य प्रदेश सरकार के मामले में सुप्रीम कोर्ट ने अपने आदेश में यह साफ कर दिया था कि एक समर्पित आयोग के परीक्षण और पिछड़ी जातियों की स्थिति के आकलन के बिना शहरी निकायों में पिछड़ों को आरक्षण नहीं दिया जा सकता। इस आदेश सभी राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों के लिए बाध्यकारी भी करार दिया गया था। इसी आदेश के अनुपालन में उत्तराखंड सरकार ने पूर्व न्यायमूर्ति बीएस वर्मा की अध्यक्षता में आयोग बना दिया था। 15 नवंबर को बीएस वर्मा की तरफ से मुख्य सचिव को लिखे गए पत्र में कहा गया था कि आयोग पिछड़ेपन की स्थितियों पर बात करने के लिए दिसंबर में लखनऊ पहुंचेगा। पत्र नगर विकास और पंचायतीराज विभाग के अधिकारियों को भी गया था, जिनसे बैठक में प्रतिनिधि नामित करने के लिए कहा गया था। सूत्र बताते हैं कि जब आयोग के साथ पंचायतीराज और शहरी निकायों के अधिकारियों की बैठक हुई तो भी पिछड़ों के आक्षण में आयोग की रिपोर्ट की अनिवार्यता पर चर्चा हुई, लेकिन इसे संजीदगी से नहीं लिया गया। जानकारों के मुताबिक अगर आयोग की बात को अधिकारियों ने संजीदगी से लिया होता तो यह स्थिति नहीं आती।

*इन मसलों पर बातचीत के लिए लिखा था पत्र*

उत्तराखंड ने 27 जुलाई को ही एकल सदस्यीय समर्पित आयोग का गठन कर दिया था। पत्र के मुताबिक आयोग को दो बिंदुओं पर बातचीत करनी थी। एक मसला त्रिस्तरीय पंचायत और स्थानीय निकाय के पिछले दो सामान्य निर्वाचन में अनराक्षित सीटों पर पिछड़ों के प्रतिनिधित्व से संबंधित था। दूसरा मामला, पंचायतीराज अधिनियम 1947, उत्तर प्रदेश क्षेत्र पंचायत एवं जिला पंचायत अधिनियम 1961 व उत्तर प्रदेश पालिका अधिनियम 1916 व इससे जुड़ी नियमावलियों से संबंधित था।

*पहले भी कई बार रैपिड सर्वे के आधार पर ही हुए हैं निकाय चुनाव, इसी के आधार पर दिया गया आरक्षण*

निकाय चुनाव के लिए में पिछड़ों को आरक्षण दिए जाने के लिए रैपिड सर्वे को आधार बनाने को लेकर विपक्षी दल भले ही मौजूदा सरकार को कठघरे में खड़ा कर रहे हैं। लेकिन, इससे पहले की सरकारों में भी इसी को आधार बनाकर निकाय और त्रिस्तरीय पंचायतों के चुनाव कराए गए थे। अलबत्ता उस दौर में इस तरह से हो-हल्ला नहीं मचा था।

उप्र नगर पालिका अधिनियम-1994 में दी गई व्यवस्था के मुताबिक निकाय चुनाव में पिछड़ों को आरक्षण देने की प्रक्रिया लागू की गई थी। इसी आधार पर 1994 के बाद से 1995, 2000, 2006, 2012 और 2017 में हुए निकाय चुनाव भी रैपिड सर्वे के आधार पर ही कराये गए हैं।

बता दें कि अधिनियम में ही पिछड़ों को आरक्षण देने के लिए रैपिड सर्वे कराने का प्रावधान है। इसके तहत ही प्रत्येक निकायों में पिछड़ों की संख्या जानने के लिए रैपिड सर्वेक्षण कराया जाता है। 2001 में हुई जनगणना के बाद 2005 में हुए पहले निकाय चुनाव में भी अधिनियम के दिए गए प्रावधान के मुताबिक ही रैपिड सर्वे के आधार पर पिछड़ों की सीटों का आरक्षण तय किया गया था। यही प्रक्रिया 2017 के चुनाव में भी अपनाई गई थी।

चूंकि मौजूदा सरकार ने 2017 के निकाय चुनाव के बाद से अब तक कुल 111 नये नगर निकायों का गठन और 130 नगर निकायों का सीमा विस्तार किया है। वहीं अधिनियम में दी गई व्यवस्था और रैपिड सर्वे के संबंध में शासन की ओर से जारी शासनादेश को न्यायालय द्वारा अब तक निरस्त नहीं किया गया है। इसलिए सरकार ने इस चुनाव में भी पूर्व निर्धारित व्यवस्था के आधार पर ही रैपिड सर्वे कराया था और उसके मुताबिक ही पिछड़ी जाति के लिए सीटों का आरक्षण जारी किया था, जिसे कोर्ट ने नहीं माना है।

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