लखनऊ27अक्टूबर25*यूपीआजतक न्यूज चैनल पर कुछ महत्वपूर्ण अंश
[27/10, 6:14 am] +91 87658 77512: *✍ भारत में प्रथम : पुरुष व्यक्तित्व 🔰*
*1. भारतीय गणराज्य के प्रथम राष्ट्रपति*
– डॉ. राजेंद्र प्रसाद
*2. स्वतंत्र भारत के प्रथम प्रधानमंत्री*
– पं. जवाहर लाल नेहरू
*3. नोबेल पुरस्कार जीतने वाले पहले भारतीय*
– रवींद्रनाथ टैगोर
*4. भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के पहले अध्यक्ष*
– डब्ल्यू. सी. बनर्जी
*5. भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के पहले मुस्लिम अध्यक्ष*
– बदरुद्दीन तैय्यबजी
*6. भारत के पहले मुस्लिम राष्ट्रपति*
– डॉ. जाकिर हुसैन
*7. भारत के पहले ब्रिटिश गवर्नर जनरल*
– लॉर्ड विलियम बेंटिक
*8. भारत के पहले ब्रिटिश वायसराय*
– लॉर्ड कैनिंग
*9. स्वतंत्र भारत के पहले गवर्नर जनरल*
– लॉर्ड माउंटबेटन
*10. स्वतंत्र भारत के गवर्नर जनरल बनने वाले पहले और अंतिम भारतीय*
– सी. राजगोपालाचारी
*11. स्वतंत्र भारत में प्रिंटिंग प्रेस शुरू करने वाले पहले व्यक्ति*
– जेम्स हिकी
*12. आई.सी.एस. में शामिल होने वाले पहले भारतीय*
– सत्येंद्र नाथ टैगोर
*13.अंतरिक्ष में जाने वाले भारत के पहले व्यक्ति*
– राकेश शर्मा
*14.भारत के पहले प्रधानमंत्री जिन्होंने अपना कार्यकाल पूरा किए बिना ही इस्तीफा दे दिया*
– मोरारजी देसाई
*15.भारत के पहले भारतीय कमांडर-इन-चीफ*
– जनरल करिअप्पा
*16.सेना के पहले प्रमुख*
– जनरल महाराज राजेंद्र सिंह जी
*17.वायसराय की कार्यकारी परिषद के पहले भारतीय सदस्य*
– एस. पी. सिन्हा
*18.भारत के पहले राष्ट्रपति जिनकी पद पर रहते हुए मृत्यु हो गई*
– डॉ. जाकिर हुसैन
*19.भारत के पहले प्रधानमंत्री जिन्होंने संसद का सामना नहीं किया*
– चरण सिंह
*20.भारत के पहले फील्ड मार्शल*
– एस. एच. एफ. मानेकशॉ
*21.भौतिकी में नोबेल पुरस्कार पाने वाले पहले भारतीय*
– सी. वी. रमन
*22.भारत रत्न पुरस्कार पाने वाले पहले भारतीय*
– डॉ. राधाकृष्णन
*23.भारत के पहले राष्ट्रपति जिन्होंने संसद का सामना नहीं किया*
– चरण सिंह
*24.भारत के पहले फील्ड मार्शल*
– एस. एच. एफ. मानेकशॉ
*25.भारत रत्न पुरस्कार पाने वाले पहले भारतीय*
– डॉ. राधाकृष्णन
*26.भारत रत्न पुरस्कार पाने वाले पहले भारतीय इंग्लिश चैनल*
– मिहिर सेन
*24. ज्ञानपीठ पुरस्कार प्राप्त करने वाले प्रथम भारतीय*
– श्री शंकर कुरुप
*25. लोकसभा के प्रथम अध्यक्ष*
– गणेश वासुदेव मावलंकर
*26. भारत के प्रथम उपराष्ट्रपति*
– डॉ. राधाकृष्णन
*27. प्रथम शिक्षा मंत्री*
– अबुल कलाम आज़ाद
*28. भारत के प्रथम गृह मंत्री*
– सरदार वैलभ भाई पटेल
*29. प्रथम भारतीय एयर चीफ मार्शल*
– एस. मुखर्जी
*30. प्रथम भारतीय नौसेना प्रमुख*
– वाइस एडमिरल आर. डी. कटारी
*31. अंतर्राष्ट्रीय न्यायालय के प्रथम न्यायाधीश*
– डॉ. नागेन्द्र सिंह
*32. परमवीर चक्र प्राप्त करने वाले प्रथम व्यक्ति*
– मेजर सोमनाथ शर्मा
*33. बिना ऑक्सीजन के माउंट एवरेस्ट पर पहुँचने वाले प्रथम व्यक्ति*
– शेरपा फु दोरजी
*34. प्रथम मुख्य चुनाव आयुक्त*
– सुकुमार सेन
*35. मैग्सेसे पुरस्कार प्राप्त करने वाले प्रथम व्यक्ति*
– आचार्य विनोबा भावे
*36.चिकित्सा में नोबेल पुरस्कार पाने वाले भारतीय मूल के पहले व्यक्ति*
– हरगोविंद खुराना
*37.भारत आने वाले पहले चीनी यात्री*
– फाहिन
*38.स्टालिन पुरस्कार पाने वाले पहले व्यक्ति*
– सैफुद्दीन किचलू
*39.केंद्रीय मंत्रिमंडल से इस्तीफा देने वाले पहले व्यक्ति*
– श्यामा प्रसाद मुखर्जी
*40.भारत रत्न पाने वाले पहले विदेशी*
– खान अब्दुल गफ्फार खान
*41.अर्थशास्त्र में नोबेल पुरस्कार पाने वाले पहले व्यक्ति*
– अमर्त्य सेन
*42.सुप्रीम कोर्ट के पहले मुख्य न्यायाधीश*
– हीरालाल जे. कनिया
[27/10, 6:14 am] +91 87658 77512: *📜 27 अक्टूबर 📜*
*🇮🇳 भारतीय पैदल सेना दिवस (Infantry Day) 🇮🇳*
हर साल 27 अक्टूबर को भारतीय पैदल सेना दिवस (Infantry Day) मनाया जाता है। देश की पैदल सेना के अभूतपूर्व शौर्य के सम्मान में इंफैन्ट्ररी डे का आयोजन होते आ रहा है। देश की पैदल सैनिकों का योगदान जम्मू और कश्मीर को पाकिस्तान के चपेट से बचाने के लिए याद किया जाता है। सभी सैनिक आजाद भारत के पहले ‘मिलिट्री ऑपरेशन’ के हीरो माने जाते हैं। सैनिकों ने पाकिस्तान के इरादों का निस्तनाबुत किया था। जिसके लिए देश आज यानी 27 अक्टूबर को पैदल सेना दिवस के रूप में याद करता है और उन वीरों का सम्मान करता है।
>> आज के दिन क्या हुआ था? <<
देश के आजाद होते ही पाकिस्तानी सैनिक कबायली बनकर जम्मू और कश्मीर में घुस पैठ करने में प्रयास रहे थे। कश्मीर के कई हिस्सों में कबायली फैलने लग गए। जब इस बात की भनक कश्मीर के राजा हरिसिंह को लगी तो वो हैरान हो रह गए। अब उनके पास कोई चारा नहीं बचा था। भारतीय सेना से मदद के लिए गुहार लगाई। फिर सेना ने कश्मीर में दस्तक दी। 27 अक्टूबर को सिख रेजीमेंट की पहली बटालियन श्रीनगर एयरबेस पहुंचा। इसके बाद सेना ने कश्मीर को अपने कंट्रोल में लेने का प्रयास किया और इसमें काफी हद तक सफल भी हुए।
>> तेजी से फैल रहे थे कबायली <<
कबायली को बैक सपोर्ट पाकिस्तानी रेंजर दे रहे थे। इन दुश्मनों को रोकने के लिए सेना की सिख रेजिमेंट एक दीवार बनकर खड़ी हो गई। पाकिस्तानी तेजी से जम्मू-कश्मीर में अपना पैठ जमा रहे थे। लिंक रोड के जरिए अगर भारतीय सैनिक को भेजा जाता तो काफी समय लग जाता और जरा सी भी लेट होना की पाकिस्तान के हाथ में कश्मीर का जाना होता।
>> पूर्व प्रधानमंत्री नेहरू ने ली एक्शन <<
आनन-फानन में 26 अक्टूबर की रात को एक आपातकालीन बैठक आयोजित की गई है, जिसमें तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू ने सिख रेजीमेंट को वायु मार्ग से भेजने का फैसला लिया। 27 अक्टूबर की सुबह भारतीय सैनिकों को लेकर दो विमानों ने कश्मीर के लिए उड़ान भरी। इसके अलावा कई जवानों को विशेष विमान से मैदान में उतारने के लिए निर्णय लिया गया। इसी दिन को इतिहास में याद रखने के लिए पैदल सैनिक दिवस मनाया जाता है।
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[27/10, 6:14 am] +91 87658 77512: *📜 27 अक्टूबर 📜*
*🌹 वेदों के ज्ञाता, महान इतिहासकार ‘पंडित भगवद्दत्त’ // जयंती 🌹*
जन्म : 27 अक्टूबर 1893
मृत्यु : 22 नवंबर 1968
पंडित भगवद्दत्त जी का जन्म 27 अक्टूबर, 1893 को अमृतसर (पंजाब) में श्री कुंदनलाल तथा श्रीमती हरदेवी के घर में हुआ था। आर्य समाजी परिवार होने के कारण भगवद्दत्त जी का संस्कृत से बहुत प्रेम था। अतः कक्षा 12 तक विज्ञान के छात्र रहने के बाद उन्होंने 1915 में डी.ए.वी. कालिज, लाहौर से संस्कृत एवं दर्शन शास्त्र में बी.ए किया।
उन्हीं दिनों उनका संपर्क स्वामी लक्ष्मणानंद से हुआ, जिन्होंने ऋषि दयानंद से योग-विधि सीखी थी। उनकी ‘ध्यान योग’ नामक पुस्तक भी उन दिनों बहुत प्रसिद्ध थी। स्वामी जी ने भगवद्दत्त जी को भी वह योग-विधि सिखाई। इससे उन्हें उत्तम स्वास्थ्य तथा एकाग्रता का असीम लाभ जीवन भर मिलता रहा।
बी.ए. करने के बाद भगवद्दत्त जी की इच्छा वेदों के अध्ययन की थी। अतः वे लाहौर के डी.ए.वी. कॉलेज के अनुसंधान विभाग में काम करने लगे। उनकी लगन देखकर विद्यालय के प्रबंधकों ने छह वर्ष बाद उन्हें वहीं विभागाध्यक्ष बना दिया। अगले 13 वर्ष में उन्होंने लगभग 7,000 हस्तलिखित ग्रंथों का संग्रह तथा अध्ययन कर उनमें से कई उपयोगी ग्रंथों का सम्पादन व पुनर्प्रकाशन किया; पर किसी सैद्धांतिक कारण से उनका तालमेल अनुसंधान विभाग में कार्यरत पंडित विश्वबन्धु से नहीं हो सका। अतः भगवद्दत्त जी डी.ए.वी कॉलेज की सेवा से मुक्त होकर स्वतन्त्र रूप से अध्ययन में लग गये।
अध्ययन, अनुसंधान और लेखन के साथ ही वे आर्य समाज में सक्रिय रहते थे। आर्य समाज के उच्च संस्था ‘परोपकारिणी सभा’ के वे निर्वाचित सदस्य थे। वे उसकी ‘विद्वत् समिति’ के भी सदस्य थे। उनकी ख्याति एक श्रेष्ठ विद्वान व वक्ता की थी। आर्य समाज के कार्यक्रमों में वे देश भर में प्रवास भी करते थे। इसी कारण वे पंडित भगवद्दत्त के नाम से प्रसिद्ध हुए।
नारी शिक्षा के समर्थक भगवद्दत्त जी ने अपनी पत्नी सत्यवती को पढ़ने के लिए प्रेरित किया और वह शास्त्री परीक्षा उत्तीर्ण करने वाली पंजाब की प्रथम महिला बनीं। उनके पुत्र सत्यश्रवा भी संस्कृत विद्वान हैं, उन्होंने अपने पिताजी के अनेक ग्रंथों का अंग्रेजी में अनुवाद कर प्रकाशित किया है। देश विभाजन के बाद दिल्ली आते समय दुर्भाग्यवश वे अपने विशाल ग्रंथ संग्रह का कुछ ही भाग साथ ला सके। दिल्ली में भी वे सामाजिक जीवन में सक्रिय रहे।
अनेक भारतीय तथा विदेशी विद्वानों ने उनकी खोज व विद्वत्ता को सराहा है। उनका परस्पर पत्र-व्यवहार भी चलता था; पर उन्हें इस बात का दुख था कि कई विद्वानों ने अपनी पुस्तकों में बिना नामोल्लेख उन निष्कर्षों को लिखा है, जिनकी खोज भगवद्दत्त जी ने की थी। पंडित राहुल सांकृत्यायन ने लाहौर में उनके साथ रहकर अनेक वर्ष अनुसंधान कार्य किया था। उन्होंने स्वीकार किया है कि ऐतिहासिक अनुसंधान की प्रेरणा उन्हें भगवद्दत्त जी से ही मिली।
भगवद्दत्त जी एक पंजाबी व्यापारी की तरह ढीला पाजामा, कमीज, सफेद पगड़ी, कानों में स्वर्ण कुंडल आदि पहनते थे; पर जब वे संस्कृत में तर्कपूर्ण ढंग से धाराप्रवाह बोलना आरम्भ करते थे, तो सब उनकी विद्वत्ता का लोहा मान जाते थे। 22 नवम्बर, 1968 को दिल्ली में ही उनका देहांत हुआ।
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[27/10, 6:14 am] +91 87658 77512: *📜 27 अक्टूबर 📜*
*🌹 ब्रिगेडियर राजेन्द्र सिंह // बलिदान दिवस 🌹*
जन्म : 14 जून 1899
मृत्यु : 27 अक्टूबर 1947
22 अक्टूबर सन् 1947 को महाराज हरिसिंह ने जब मुजफ्फराबाद पर पाक सेना के कब्जे की खबर सुनी, तो उन्होंने खुद दुश्मन से मोर्चा लेने का फैसला करते हुए सैन्य वर्दी पहनकर ब्रिगेडियर राजेंद्र सिंह को बुलाया. सिंह ने महाराजा को मोर्चे से दूर रहने के लिए मनाते हुए खुद दुश्मन का आगे जाकर मुकाबला करने का निर्णय लिया. राजेंद्र सिंह महाराजा के साथ बैठक के बाद जब बादामी बाग पहुंचे तो वहां 100 के करीब सिपाही मिले. उन्होंने सैन्य मुख्यालय को संपर्क कर अपने लिए अतिरिक्त सैनिक मांगे. मुख्यालय में मौजूद ब्रिगेडियर फकीर सिंह ने उन्हें 70 जवान और भेजने का यकीन दिलाया, इसी दौरान महाराजा ने खुद मुख्यालय में कमान संभालते हुए कैप्टन ज्वालासिंह को एक लिखित आदेश के संग उड़ी भेजा. इसमें कहा गया था –
“ब्रिगेडियर राजेंद्रसिंह को आदेश दिया जाता है, कि वह हर हाल में दुश्मन को आखिरी सांस और आखिरी जवान तक उड़ी के पास ही रोके रखें.”
कैप्टन सिंह 24 अक्टूबर की सुबह एक छोटी सैन्य टुकड़ी के संग उड़ी पहुंचे. उन्होंने सैन्य टुकड़ी ब्रिगेडियर राजेंद्र सिंह को सौंपते हुए महाराजा का आदेश सुनाते हुए खत थमाया. हालात को पूरी तरह से विपरीत और दुश्मन को मजबूत समझते हुए ब्रिगेडियर ने कैप्टन नसीब सिंह को उड़ी नाले पर बने एक पुल को उड़ाने का हुक्म सुनाया, ताकि दुश्मन को रोका जा सके.
इससे दुश्मन कुछ देर के लिए रुक गया, लेकिन जल्द ही वहां गोलियों की बौछार शुरू हो गई. करीब दो घंटे बाद दुश्मन ने फिर हमला बोल दिया. दुश्मन की इस चाल को भांपते हुए ब्रिगेडियर सिंह के आदेश पर कैप्टन ज्वाला सिंह ने सभी पुलों को उड़ा दिया. यह काम शाम साढ़े चार बजे तक समाप्त हो चुका था, लेकिन कई कबाइली पहले ही इस तरफ आ चुके थे. इसके बाद ब्रिगेडियर ने रामपुर में दुश्मन को रोकने का फैसला किया और रात को ही वहां पहुंचकर उन्होंने अपने लिए खंदकें खोदीं. रात भर खंदकें खोदने वाले जवानों को सुबह तड़के ही दुश्मन की गोलीबारी झेलनी पड़ी. मोर्चा बंदी इतनी मजबूत थी कि पूरा दिन दुश्मन गोलाबारी करने के बावजूद एक इंच नहीं बढ़ पाया.
दुश्मन की एक टुकड़ी ने पीछे से आकर सड़क पर अवरोधक तैयार कर दिए, ताकि महाराज के सिपाहियों को वहां से निकलने का मौका नहीं मिले, ब्रिगेडियर राजेंद्र सिंह को दुश्मन की योजना का पता चल गया और उन्होंने 27 अक्टूबर की सुबह एक बजे अपने सिपाहियों को पीछे हटने और सेरी पुल पर डट जाने को कहा. पहला अवरोधक तो उन्होंने आसानी से हटा लिया, लेकिन बोनियार मंदिर के पास दुश्मन की फायरिंग की चपेट में आकर सिपाहियों के वाहनों का काफिला थम गया. पहले वाहन का चालक दुश्मन की फायरिंग में शहीद हो गया.
इस पर कैप्टन ज्वाला सिंह ने अपनी गाड़ी से नीचे आकर जब देखा तो पहले तीनों वाहनों के चालक मारे जा चुके थे, उन्हें ब्रिगेडियर राजेंद्र सिंह नजर नहीं आए, वह अपने वाहन चालक के शहीद होने पर खुद ही वाहन लेकर आगे निकल गए थे. सेरी पुल के पास दुश्मन की गोलियों का जवाब देते हुए वह बुरी तरह जख्मी हो गए. उनकी दाई टांग पूरी तरह जख्मी थी. उन्होंने उसी समय अपने जवानों को आदेश दिया कि वह पीछे हटें और दुश्मन को रोकें. उन्हें जब सिपाहियों ने उठाने का प्रयास किया तो वह नहीं माने और उन्होंने कहा कि वह उन्हें पुलिया के नीचे आड़ में लिटाएं और वह वहीं से दुश्मन को राकेंगे. 27 अक्टूबर सन् 1947 की दोपहर को सेरी पुल के पास ही उन्होंने दुश्मन से लड़ते हुए वीरगति पाई.
अलबत्ता, 26 अक्टूबर सन् 1947 की शाम को जम्मू कश्मीर के भारत में विलय को लेकर समझौता हो चुका था और 27 अक्टूबर को जब राजेंद्र सिंह मातृभूमि की रक्षार्थ बलिदान हुए तो उस समय कर्नल रंजीत राय भारतीय फौज का नेतृत्व करते हुए श्रीनगर एयरपोर्ट पर पहुंच चुके थे.
युद्ध विशेषज्ञों का दावा है कि अगर वह पीछे नहीं हटते तो कबाइली 23 अक्टूबर की रात को ही श्रीनगर में होते. ब्रिगेडियर राजेंद्रसिंह ने जो फैसला लिया था वह कोई चालाक और युद्ध रणनीति में माहिर व्यक्ति ही ले सकता था. उनके इसी फैसले और शहादत के कारण कश्मीर पाकिस्तान का हिस्सा बनने से बचा है.
ब्रिगेडियर राजेंद्र सिंह को मरणोपरांत देश के पहले महावीर चक्र से सम्मानित किया गया. फील्ड मार्शल के.एम.करिअप्पा ने 30 दिसंबर सन् 1949 को जम्मू संभाग में बगूना सांबा के इस सपूत की वीर पत्नी रामदेई को सम्मानित किया था.
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[27/10, 6:14 am] +91 87658 77512: *📜 27 अक्टूबर 📜*
*🌹 महान योद्धा बंदा सिंह बहादुर (बन्दा बैरागी) // जयंती 🌹*
जन्म : 27 अक्टूबर 1670
मृत्यु : 09 जून 1716
मुगलों को नाकों चने चबवाने वाले योद्धा बन्दा बैरागी का जन्म जम्मू कश्मीर के पुंछ में 27 अक्टूबर, 1670 को ग्राम तच्छल किला में श्री रामदेव के घर हुआ। गुरु गोविन्द सिंह ने बन्दा बहादुर नाम दिया और उन्हें पाँच तीर, एक निशान साहिब, एक नगाड़ा और एक हुक्मनामा दिया। उन्होंने बंदा बहादुर को अपने दोनों छोटे पुत्रों को दीवार में चिनवाने वाले, सरहिन्द के नवाब से बदला लेने को कहा।
कुछ कर गुज़रने को तत्पर बन्दा हजारों सिख सैनिकों को साथ लेकर पंजाब की ओर चल दिये। बंदा बहादुर एक तूफ़ान बन गए जिसे रोकना किसी के बस में नहीं था। सबसे पहले उन्होंने श्री गुरु तेगबहादुर जी का शीश काटने वाले जल्लाद जलालुद्दीन का सिर काटा। फिर गुरु गोविन्द सिंह के दोनों पुत्रों को दीवार में चिनवाने वाले सरहिन्द के नवाब वजीर खान का वध किया।
उनके पराक्रम से भयभीत मुगलों ने दस लाख फौज लेकर उन पर हमला किया और धोखे से 17 दिसंबर, 1715 को उन्हें पकड़ लिया। मुग़ल इतने डरे हुए थे कि बंदा बहादुर को प्रताड़ित करने में उन्होंने कोई कसर नहीं छोड़ी। बंदा बहादुर को अपमानित करने के लिए उन्हें लोहे के एक पिंजड़े में बंदी बनाकर, हाथी पर लादकर सड़क मार्ग से दिल्ली लाया गया। युद्ध में जिन सिख सैनिकों ने वीरगति पायी थी उनके सिर काटकर, उन्हें भाले की नोक पर टाँगकर दिल्ली लाया गया, ताकि रास्ते में सभी इस भयावह दृश्य को देखें। उनके साथ हजारों सिख भी कैद किये गये थे। रास्ते भर गर्म चिमटों से बन्दा बैरागी का माँस नोचा जाता रहा।
अत्याचारी मुग़लों ने बन्दा को भयभीत करने के लिए उनके 5 वर्षीय पुत्र अजय सिंह को उनकी गोद में लेटाकर, बन्दा के हाथ में छुरा देकर उसको मारने को कहा गया। बन्दा ने अपने ही बेटे की हत्या करने से मना कर दिया। इस पर जल्लाद ने उस पाँच साल के बच्चे के दो टुकड़े कर उसके दिल का माँस निकलकर बन्दा के मुँह में ठूँस दिया। पर वीर बंदा बैरागी तो इन सबसे ऊपर उठ चुके थे। गरम चिमटों से माँस नोचे जाने के कारण उनके शरीर में केवल हड्डियाँ ही बची थीं। इतने निर्मम अत्याचार करने के बाद भी जब बंदा का मनोबल नहीं टूटा तो 9 जून, 1716 को दुश्मनों ने इस वीर को हाथी से कुचलवा दिया गया। इस प्रकार बन्दा बैरागी वीरगति को प्राप्त हुए। अपनी कौम की रक्षा के लिए बंदा बैरागी का बलिदान विलक्षण है।
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