जम्मू कश्मीर22जून25*योगेन्द्र यादव1962 के चीन युद्ध के समय जनसंघ ( भाजपा का पुराना नाम ) विरोध प्रदर्शन कर रहा था
और अटल बिहारी वाजपेयी की माँग पर नेहरू ने संसद का विशेष सत्र युद्ध के बीच ही बुलाया था क्योंकि वाजपेयी ने अपने भाषण में सरकार को #महापापी और #अपराधी बताया था लेकिन नेहरू ने धैर्य से विपक्ष को सुना और जवाब दिया ना कि अपनी कमजोरी छिपायी और ना ही वाजपेयी या विपक्ष को #देशद्रोही कहा।
सितंबर 1962 में गर्मी का ताप उतार पर था जब नेफा यानी नार्थ ईस्ट फ्रंटियर एजेंसी (अरुणाचल प्रदेश) में चीनी घुसपैठ की खबरें आने लगी थीं और अक्टूबर आते-आते ‘हिंदी-चीनी भाई-भाई’ के नारे से बने विश्वास की पीठ पर छुरा घोंपते हुए चीन ने भारत पर आक्रमण कर दिया जबकि भारत को आजाद हुए महज पंद्रह साल हुए थे और आजादी के आंदोलन में महानायक बनकर उभरे जवाहरलाल नेहरू के नेतृत्व में आत्मनिर्भरता के लिए अथक प्रयास कर रहा भारत युद्ध के लिए तैयार नहीं था।
चीन से लड़ाई 20 अक्टूबर को शुरू हुई थी और 26 अक्टूबर को राष्ट्रीय आपातकाल की घोषणा हो गयी हालांकि पंचशील और शांतिवादी नीतियों के लिए नेहरू को आलोचना का सामना करना पड़ रहा था क्योंकि जनसंघ ने नेहरू सरकार पर युद्ध के लिए अपर्याप्त सैन्य तैयारियों और कथित रूप से कमजोर विदेश नीति के लिए आलोचना की और विरोध प्रदर्शन भी आयोजित किए और ऐसे ही एक प्रदर्शन का नेतृत्व जनसंघ के युवा नेता अटल बिहारी वाजपेयी ने भी किया जो संसद मार्ग पर हुआ था।
वाजपेयी तब 36 साल के थे और पहली बार राज्यसभा में पहुँचे थे मगर 26 अक्टूबर को वाजपेयी ने जनसंघ संसदीय दल के चार सदस्यीय प्रतिनिधिमंडल के साथ अपनी उम्र से ठीक दुगनी उम्र के प्रधानमंत्री नेहरू से मुलाकात की और संसद का विशेष सत्र बुलाने की माँग रखी हालांकि जनसंघ उस समय संसद में बेहद छोटी पार्टी थी जबकि कांग्रेस के पास दो तिहाई बहुमत था लेकिन नेहरू हृदय की गहराइयों से लोकतांत्रिक थे इसलिए उन्होंने सत्र बुलाने की माँग मान ली।
युद्ध चल रहा था लेकिन संसद में विपक्ष की ओर से आलोचना के तीर चलने की पूरी आशंका थी तो ऐसे में नेहरू के इस रुख का उनकी पार्टी में ही कुछ लोगों ने विरोध किया और एक कांग्रेसी सांसद का प्रस्ताव था कि #गुप्त सत्र बुलाया जाए, जिसकी अखबारों में खबर न छपे और नारिकॉर्ड रखा जाये मगर नेहरू ने इस प्रस्ताव का खारिज करते हुए कहा कि 👉 यह मुद्दा देश के लिए महत्वपूर्ण है, इसे जनता से नहीं छिपाया जा सकता।
8 नवंबर 1962 को युद्ध के बीच नेहरू सरकार ने संसद का विशेष सत्र बुलाया और यह सत्र राष्ट्रीय आपातकाल की घोषणा और युद्ध की स्थिति पर चर्चा के लिए बुलाया गया था मगर इस सत्र में सात दिन तक चर्चा हुई, जिसमें 165 सांसदों ने भाग लिया। पहले दिन नेहरू ने लोकसभा में दो प्रस्ताव पेश किए:- पहला थाथ राष्ट्रीय आपातकाल की स्वीकृति के लिए, और दूसरा था चीन की आक्रामकता की निंदा के लिए और दोनों प्रस्ताव सर्वसम्मति से पारित हुए।
नेहरू ने स्वीकार किया कि भारत शायद पूरी तरह तैयार नहीं था लेकिन उन्होंने इसे अपनी शांति की भावना का परिणाम बताया। उन्होंने कहा :- मुझे इसका कोई खेद नहीं है क्योंकि मुझे लगता है कि यह एक सही भावना थी मगर भारतीय सैनिकों के निहत्थे और नंगे पांव लड़ने की अफवाहों का खंडन करते हुए नेहरू ने कहा :- यह असाधारण है क्योंकि उनके पास ऊनी वर्दी, अच्छे जूते, तीन कंबल और बाद में चार और पूर्ण शीतकालीन वस्त्र थे।
उधर राज्यसभा में भी बहस जारी थी और दूसरे दिन यानी 9 नवंबर को अटल बिहारी वाजपेयी को मौका मिला और अपने भाषण में वाजपेयी ने सैनिकों के पास हथियारों की कमी को ‘#शर्मनाक और नेहरू की चीन नीति को #महापाप बताया।
वाजपेयी ने पूरी तैयारी से नेहरू सरकार पर तीखे हमले बोले। उन्होंने कहा :- हमें यह भी स्वीकार करने में संकोच नहीं होना चाहिए कि राष्ट्रीय सुरक्षा की उपेक्षा करके हमने राष्ट्र के प्रति एक महान अपराध किया है। अपनी सीमाओं को असुरक्षित छोड़कर हम एक महान पाप के भागी बने हैं और हमें उस पाप का प्रायश्चित करने के लिए तैयार होना चाहिए। क्या यह लज्जा की बात नहीं है कि स्वाधीनता के पंद्रह वर्षों के बाद भी हम छोटे-मोटे हथियारों के लिए विदेशों का मुँह ताकें। क्या हम देश में ऑटोमेटिक राइफल्स नहीं बना सकते थे? क्या हम अपने जवानों को पहनने के लिए पूरे कपड़े नहीं दे सकते थे?
उन जवानों की वीरता की गाथा गाना ही पर्याप्त नहीं है, उनके आत्मोत्सर्ग की कहानियाँ ही काफी नहीं हैं क्योंकि हमारे जवान हरदम मौत से खेलते रहे हैं, जान हथेली पर रखकर लड़ते रहे हैं। केवल जवानों की वीरता हल्दीघाटी के मैदान में हमारी पराजय नहीं रोक सकी, केवल जवानों का बलिदान पानीपत के मैदानों के इतिहास की कालिमा नहीं बदल सका। उन जवानों के लिए जो सीमा पर अपना रक्त देकर हमारी रक्षा कर रहे हैं, हम श्रद्धा से नत हो जाते हैं। मगर हम इन जवानों को पूरी तरह से तैयार नहीं कर सके, इसके लिए भी हमारा मस्तक भी लज्जा से झुक जाना चाहिए।
हम नेफा में पूरी तरह तैयार नहीं थे तोत क्या यह हमारे प्रधानमंत्री जी को पता था? अगर यह पता था तो विदेशयात्रा से वापस आने के बाद उन्होंने हवाई छज्जे पर यह क्यों नहीं कहा कि हमारी सेना को चीनियों को देश की भूमि से बाहर खदेड़ने का आदेश दे दिया है? अगर यह कहा जाये कि उन्हें पता नहीं था तो फिर इस प्रश्न का उत्तर देना होगा उनको इस बारे में किसने अँधेरे में रखा। हम यह भी जानना चाहेंगे कि हमारे नेता इस संकटकाल में फिर से अंधेरे में ना रखे जायें, इसके लिए कौन-कौन से व्यक्ति बदल दिये गये हैं और क्या-क्या व्यवस्था बदली गयी है?
जाहिर है कि वाजपेयी की भाषा बहुत तीखी थी। अन्य कई विपक्षी सांसदों ने भी शब्दबाणों से नेहरू को घायल करने में कोई कसर नहीं छोड़ी मगर नेहरू ने सबको धैर्य से सुना और विस्तार से जवाब दिया लेकिन युद्ध के बीच सरकार को कठघरे में खड़ा करने के लिए विपक्ष की देशभक्ति पर संदेह नहीं जताया मतलब ये कि नेहरू जी संसद के अंदर और बाहर दोनों मोर्चा सँभाले हुए थे। 19 नवंबर को उन्होंने अरुणाचल प्रदेश और लद्दाख में सेना की हानि की जानकारी दी, जिसमें रेजांगला, चुशूल घाटी का उल्लेख था। उन्होंने कहा :- लड़ाई अभी भी जारी है और यह बुरी खबर है। मैं इस स्तर पर और विवरण नहीं दे सकता। हम किसी भी तरह से हार नहीं मानेंगे और दुश्मन से तब तक लड़ेंगे जब तक उसे खदेड़ नहीं दिया जाता।
21 नवंबर को जब चीन ने एकतरफा युद्धविराम की घोषणा की, नेहरू ने संसद को सूचित किया और कहा :- 8 सितंबर 1962 से पहले की स्थिति बहाल होनी चाहिए लेकिन विपक्ष ने कमजोर नजर आ रहे नेहरू पर एक और हमला किया और युद्ध विराम के कुछ समय बाद अगस्त 1963 में लोकसभा में भारत का पहला अविश्वास प्रस्ताव पेश किया गया।
आचार्य जे.बी. कृपलानी की ओर से नेहरू सरकार के खिलाफ पेश किया गया यह प्रस्ताव 1962 के भारत/चीन युद्ध में भारत की हार के बाद सरकार की कथित विफलताओं के संदर्भ में लाया गया था मगर चार दिन और 20 घंटे से अधिक की बहस के बाद ये प्रस्ताव गिर गया क्योंकि केवल 62 सांसदों ने इसके पक्ष में मतदान किया जबकि 347 ने विरोध में मत दिया था।
नोट :- अगर यही घटनाक्रम मौजूदा सरकार के साथ हो तो विपक्ष को ना केवल राष्ट्र विरोधी घोषित कर दिया जाता बल्कि अंधभक्त भी अपना गटरछाप विलाप कर रहे होते मगर राजनैतिक विरोध की तब एक मर्यादा थी मगर मौजूदा सम्राट महाराज धनानन्द का सिंहासन तो बेशर्मी और निर्लज्जता की पराकाष्ठा पे टिका हुआ है।
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