नई दिल्ली30जुलाई*मुझे राजीव लौटा दीजिए, मैं लौट जाऊंगी. नहीं लौटा सकते तो उनके पास यहीं मिट्टी में मिल जाने दीजिए—सोनिया गांधी*
आपने देखा है न उन्हें! चौड़ा माथा, गहरी आंखे, लम्बा कद और वो मुस्कान!
जब मैंने भी उन्हें पहली बार देखा, तो बस देखती रह गयी. साथी से पूछा- कौन है ये खूबसूरत नौजवान, हैंडसम!
हैंडसम कहा था मैंने. साथी ने बताया वो इंडियन है. पण्डित नेहरू की फैमिली से है. मैं देखती रही नेहरू फैमिली के लड़के को.
कुछ दिन बाद, यूनिवर्सिटी कैंपस के रेस्टोरेन्ट में लंच के लिए गयी. बहुत से लड़के थे वहां. मैंने दूर एक खाली टेबल ले ली. वो भी उन दूसरे लोगो के साथ थे. मुझे लगा, कि वह मुझे देख रहे है. नजरें उठाई, तो वे सचुच मुझे ही देख रहे थे. क्षण भर को नजरे मिली, और दोनो सकपका गए.
अगले दिन जब लंच के लिए वहीं गयी, वो आज भी मौजूद थे. कहीं मेरे लिए इंतजार. मेरी टेबल पर वेटर आया, नैपकिन लेकर, जिस पर एक कविता लिखी थी. वो पहली नजर का प्यार था.
वो दिन खुशनुमा थे. वो स्वर्ग था. हम साथ घूमते, नदियों के किनारे, कार में दूर ड्राइव, हाथों में हाथ लिए सड़कों पर घूमना, फिल्में देखना. मुझे याद नही कि हमने एक दूसरे को प्रोपोज भी किया हो. जरूरत नही थी, सब नैचुरल था, हम एक दूसरे के लिए बने थे. हमे साथ रहना था. हमेशा…
उनकी मां प्रधानमंत्री बन गयी थी. जब इंग्लैंड आयी तो राजीव ने मिलाया. हमने शादी की इजाजत मांगी. उन्होंने भारत आने को कहा.
भारत? ये दुनिया के जिस किसी कोने में हो, राजीव के साथ कहीं भी रह सकती थी, तो आ गयी. गुलाबी साड़ी, खादी की, जिसे नेहरूजी ने बुना था, जिसे इंदिरा जी ने अपनी शादी में पहना था, उसे पहन कर इस परिवार की हो गयी. मेरी मांग में रंग भरा, सिन्दूर कहते हैं उसे. मैं राजीव की हुई, राजीव मेरे, और मैं यहीं की हो गयी!
दिन पंख लगाकर उड़ गए. राजीव के भाई नही रहे. इंदिरा जी को सहारा चाहिए था. राजीव राजनीति में जाने लगे. मुझे नही था पसंद, मना किया. हर कोशिश की, मगर आप हिंदुस्तानी लोग, मां के सामने पत्नी की कहां सुनते है?
वो गए और जब गए तो बंट गये. उनमें मेरा हिस्सा घट गया. फिर एक दिन इंदिरा निकलीं. बाहर गोलियों की आवाज आई. दौड़कर देखा तो खून से लथपथ! आप लोगों ने छलनी कर दिया था. उन्हें उठाया, अस्पताल दौड़ी, उनके खून से मेरे कपड़े भीगते रहे. मेरी बांहों में दम तोड़ा. आपने कभी इतने करीब से मौत देखी है?
उस दिन मेरे घर के एक नही, दो सदस्य घट गए. राजीव पूरी तरह देश के हो गए. मैंने सहा, हंसा, साथ निभाया. जो मेरा था, सिर्फ मेरा, उसे देश से बांटा; और क्या मिला? एक दिन उनकी भी लाश लौटी. कपड़े से ढंका चेहरा!
एक हंसते, गुलाबी चेहरे को लोथड़ा बनाकर लौटा दिया आप सबने.
उनका आखरी चेहरा मैं भूल जाना चाहती हूं. उस रेस्टोरेंट में पहली बार की वो निगाह, वो शामें, वो मुस्कान! बस वही याद रखना चाहती हूं.
इस देश में जितना वक्त राजीव के साथ गुजारा है, उससे ज्यादा राजीव के बगैर गुजार चुकी हूं. मशीन की तरह जिम्मेदारी निभाई है. जब तक शक्ति थी, उनकी विरासत को बिखरने से रोका. इस देश को समृद्धि के सबसे गौरवशाली लम्हे दिए. घर औऱ परिवार को संभाला है. एक परिपूर्ण जीवन जिया है. मैंने अपना काम किया है. राजीव को जो वचन नही दिए, उनका भी निबाह मैंने किया है.
सरकारें आती जाती है. आपको लगता है कि अब इन हार-जीत का मुझ पर फर्क पड़ता है. आपकी गालियां, विदेशी होने की तोहमत, बार बाला, जर्सी गाय, विधवा, स्मगलर, जासूस….इनका मुझे दुख होता है? किसी टीवी चैनल पर दी जा रही गालियों का दुख होता है, ट्विटर और फेसबुक पर अनर्गल ट्रेंड का दुख होता है? नही, तरस जरूर आता है.
याद रखिये, जिससे प्रेम किया हो, उसकी लाश देखकर जो दुख होता है. इसके बाद दुख नही होता. मन पत्थर हो जाता है. मगर आपको मुझसे नफरत है, बेशक कीजिये. आज ही लौट जाऊंगी. बस, राजीव लौटा दीजिए, और अगर नही लौटा सकते, तो शांति से, राजीव के आसपास, यहीं कहीं इसी मिट्टी में मिल जाने दीजिए.
इस देश की बहू को इतना तो हक मिलना चाहिए शायद?
(सोनिया गांधी जी के पत्र का एक अंश!)

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