अलीगढ़12सितम्बर25*देरी से मिला न्याय अन्याय के समान – एडवोकेट शिवानी जैन
अलीगढ़*न्याय और स्वतंत्रता, एक-दूसरे के पूरक और समाज की नींव के स्तंभ हैं। जहाँ न्याय, बिना किसी भेदभाव के निष्पक्षता सुनिश्चित करता है, वहीं स्वतंत्रता हर व्यक्ति को उसकी गरिमा के साथ जीवन जीने का अधिकार देती है। जब ये दोनों एक साथ काम करते हैं, तो एक ऐसा समाज बनता है जहाँ नागरिक सुरक्षित और सशक्त महसूस करते हैं। परंतु, जब न्याय प्रणाली कमज़ोर होती है, तो स्वतंत्रता स्वयं ही खतरे में पड़ जाती है। यह लेख न्याय प्रणाली और स्वतंत्रता के जटिल संबंधों पर प्रकाश डालता है, जिसमें विद्वानों के विचारों को भी शामिल किया गया है।
न्याय प्रणाली का मुख्य उद्देश्य कानून के शासन को बनाए रखना है। कानून का शासन यह सुनिश्चित करता है कि कोई भी व्यक्ति, चाहे वह कितना भी शक्तिशाली क्यों न हो, कानून से ऊपर नहीं है। जॉन रॉल्स, अपने प्रसिद्ध कार्य “ए थ्योरी ऑफ जस्टिस” में, इस बात पर ज़ोर देते हैं कि एक न्यायपूर्ण समाज वह है जहाँ हर नागरिक को समान अधिकार और अवसर प्राप्त हों। उनके अनुसार, स्वतंत्रता तभी सार्थक होती है जब वह सभी के लिए समान हो। यदि न्याय प्रणाली कुछ लोगों को विशेष अधिकार देती है या दूसरों के अधिकारों का हनन करती है, तो वह समाज में स्वतंत्रता की भावना को समाप्त कर देती है।
भारतीय संदर्भ में, हमारी न्याय प्रणाली ने स्वतंत्रता को बनाए रखने में एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। भारतीय संविधान का अनुच्छेद 21, जो जीवन और व्यक्तिगत स्वतंत्रता का अधिकार देता है, न्यायपालिका द्वारा कई बार विस्तारित किया गया है। सर्वोच्च न्यायालय ने इस अनुच्छेद की व्याख्या करते हुए न केवल शारीरिक स्वतंत्रता, बल्कि सम्मान के साथ जीने, निजता, शिक्षा और स्वच्छ पर्यावरण जैसे अधिकारों को भी इसमें शामिल किया है। यह दर्शाता है कि न्यायपालिका ने कैसे संविधान की मूल भावना को जीवित रखा है और नागरिकों की स्वतंत्रता को व्यापक बनाया है। न्यायमूर्ति डी. वाई. चंद्रचूड़ जैसे विद्वानों ने इस बात पर बल दिया है कि न्यायपालिका को हमेशा सत्ता के निरंकुश प्रयोग के खिलाफ़ एक प्रहरी के रूप में काम करना चाहिए।
यह भी सत्य है कि न्याय प्रणाली की अपनी चुनौतियाँ हैं। भारत में, लाखों मामले लंबित हैं, जिससे न्याय मिलने में देरी होती है। जैसा कि कहा गया है, “देरी से मिला न्याय, अन्याय के समान है।” जब किसी व्यक्ति को न्याय के लिए वर्षों तक इंतजार करना पड़ता है, तो उसकी स्वतंत्रता का अधिकार ही अप्रभावी हो जाता है। एक व्यक्ति जो अपनी स्वतंत्रता के हनन के खिलाफ़ लड़ रहा है, अगर उसे त्वरित न्याय नहीं मिलता, तो वह अपने संघर्ष में थक जाता है। इसके अलावा, न्यायपालिका में भ्रष्टाचार और पक्षपात की संभावना भी लोकतंत्र और स्वतंत्रता के लिए एक बड़ा खतरा है।
आधुनिक युग में, तकनीकी प्रगति ने न्याय प्रणाली के सामने नई चुनौतियाँ खड़ी की हैं। साइबर अपराध, सूचना गोपनीयता और निगरानी जैसे मुद्दे अब न्याय के दायरे में आ गए हैं। न्यायमूर्ति बी. एन. श्रीकृष्णकी अध्यक्षता वाली समिति ने निजता के अधिकार पर अपने विचार दिए, जिसमें यह स्पष्ट किया गया कि डिजिटल युग में निजता एक मौलिक अधिकार है। यह दिखाता है कि न्यायपालिका को लगातार बदलते समाज और प्रौद्योगिकी के साथ तालमेल बिठाना पड़ता है ताकि वह नागरिकों की स्वतंत्रता की रक्षा कर सके।
स्वतंत्रता केवल व्यक्ति के अधिकारों तक सीमित नहीं है, यह समाज की सामूहिक चेतना से भी जुड़ी है। एक न्यायपूर्ण समाज में, हर व्यक्ति अपनी राय व्यक्त करने, संगठित होने और अपने जीवन के निर्णय लेने के लिए स्वतंत्र महसूस करता है। अमर्त्य सेन, अपने काम “द आइडिया ऑफ जस्टिस” में, इस बात पर ज़ोर देते हैं कि न्याय को केवल नियमों और प्रक्रियाओं तक सीमित नहीं रखना चाहिए, बल्कि इसे समाज में वास्तविक समानता और स्वतंत्रता सुनिश्चित करने वाले परिणामों पर भी ध्यान देना चाहिए। उनके अनुसार, समाज में गरीबी, असमानता और शिक्षा की कमी भी स्वतंत्रता के रास्ते में बाधाएँ हैं, और एक न्यायपूर्ण प्रणाली को इन समस्याओं का समाधान करना चाहिए।
अंत में हम कह सकते हैं ,न्याय प्रणाली और स्वतंत्रता एक-दूसरे से इस तरह जुड़े हैं कि एक के बिना दूसरे का अस्तित्व अधूरा है। एक मजबूत, निष्पक्ष और त्वरित न्याय प्रणाली ही एक समाज में वास्तविक स्वतंत्रता को जन्म दे सकती है। यह केवल कानूनों का पालन करने के बारे में नहीं है, बल्कि यह उन मूल्यों को बनाए रखने के बारे में भी है जो एक मानव को सम्मान के साथ जीवन जीने की अनुमति देते हैं। हमें अपनी न्याय प्रणाली को और अधिक सुलभ, पारदर्शी और प्रभावी बनाने के लिए लगातार प्रयास करने होंगे, ताकि हर नागरिक को यह विश्वास हो कि न्याय केवल एक शब्द नहीं, बल्कि एक वास्तविकता है।

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